पृष्ठ:समाजवाद और राष्ट्रीय क्रान्ति.pdf/२२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( २०१) प्रश्न है कि उस अर्थ व्यवस्था की योजना अल्पसंख्यकों के लिए हो रही है अथवा बहुसंख्यकों के लिए । हिटलरी शासन में जर्मन अर्थ व्यवस्था योजनात्मक थी। परन्तु कोई भी यह नहीं कहेगा कि उसने समाज को सभ्यता और जनतन्त्र के लिए व्यवस्थित किया। किसी न किसी प्रकार की योजनात्मक अर्थ व्यवस्था याजकल अनिवार्य होगई है और युद्ध के पश्चात् किसी देश में पहली सी अवस्थायें नहीं लौट सकेंगी । जो अर्थ व्यवस्था एक समानता पूर्ण समाज का निर्माण करना नहीं चाहती, उसका परिणाम होगा जन- तन्त्रीय संस्थानों का परित्याग । ऐसा एक और नारा कांग्रेस-लोग एकता का है जिसको हिन्दू- मुस्लिम एकता के वरावर बताया जा रहा है, परन्तु यह केवल एक धोत्रा और प्रपञ्च है। प्रत्येक सच्चे देश-प्रेमी को साम्प्रदायिक एकती का पक्षपाती होना चाहिये । साम्प्रदायिक शांति और सदभावना वांछनीय चीजें हैं, और हमें उन्हें लाने का यत्न करना चाहिये । मैं यह भी मानता हूँ कि समझौते और राजीनामे इस कार्य में सहायक होते हैं । परन्तु हमें यह याद रखना चाहिए कि सम्प्रदायों में एकता होते होते होती है । समझौते अस्थायी उद्देश्यों को सिद्ध करने के अस्थायी उपाय तो होते हैं, परन्तु सम्प्रदायी एकता एक दूसरी ही चीज है जो धीमे धीमे बड़ी कठिनता से पैदा होती है। समझौते अवश्य ही इस प्रक्रिया को अधिक गतिशील तो बना सकते हैं, परन्तु इसका स्थान नहीं ले सकते। अावादी की अदला- बदली के विना पाकिस्तान बने या न बने, साम्प्रदायिक समस्या को तो सुलझाना ही पड़ेगा। और वह इसी तरह सुलझ सकती है कि देश की हिन्दू-मुस्लिम जनता पर समान रूप से असर डालने