पृष्ठ:समाजवाद और राष्ट्रीय क्रान्ति.pdf/३४

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( ७ ) याले दो दलों मे आदर्शों और कार्य-पद्धति की समानता हो । इसके विप- रीत दशा में एकता से दोनों को शक्तिहीनता और अभिपतन ही प्राप्त होंगे। यथार्थ में, देश के विभिन्न वर्ग में भिन्नता की भावना उत्तरोत्तर तीव्र गति से जड़ पकड़ती जा रही है, और उच्च तथा मध्यवर्ग के अधिकाधिक टुकड़े राष्ट्रीय आन्दोलन से टूटकर अलग होने जा रहे हैं। विशाल जनसमुदाय में ये काटकर अनेक नये वर्गों का निर्माण हो रहा है। गवर्नमेण्ट अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए देश की प्रतिक्रियावादी शक्तियों, जैसे---- राजाओं, बड़े जमीदारों और सम्प्रदायवादियों को बढ़ावा देकर उन्हें राष्ट्रीय श्रान्दोलन के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयत्न कर रही है। यह भारत में ब्रिटिश सत्ता की प्रारम्भ में ही आधारभूत नीति रही है। भारतीय दूंजी- पतियों को अपने साम्राज्यवाद के छोटे साझीदार बनाकर वह उन्हें भी अपने साथ मिला रही । ऐसी स्थिति में एकता क ना करना क्या अर्थहीन नहीं? हमारा यह कर्तव्य है कि हम एकता का नाम क्योंकि उसके लिए कोई आधार नहीं है । हमे तो राष्ट्रीय आन्दोलन को, जो अभी तक मुख्यतः म अवगीय आन्दोलन रहा है, अधिक तीव्र बनाना चाहिये। ऐसा मेरे विचार मे तभी हो सकता है जब हम जनसमुदाय को आर्थिक वर्ग- चतना के आधार पर मंग,ठेत करके आन्दोलन के आधार को अधिक विस्तृत अनायें। किसी वर्ग में चेतना या ज.गृति उत्पन्न करने के दो ही साधन है-- प्रचार और संगठन । कृषक लोग अपने आपको संगठित करने, अपने हितों को पहचानने की अक्षमता के लिए विश्व भर में बदनाम हैं। यदि उन्हें अपने भरोसे छोड़ दिया जाय, तो वे असत्य परिस्थितियों के विरुद्ध अपने असन्तोष को सहज विद्रोह के द्वारा ही व्यक्त कर सकते हैं। श्रायरलैण्ड में ऐसा हुश्रा, रूस में ऐसा हुआ, और भारत भी इसका कोई अपवाद नहीं है।