पृष्ठ:समाजवाद और राष्ट्रीय क्रान्ति.pdf/४३

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छोटे उत्पादन क्षेत्रों को कुचलकर बड़े बने ; बड़ों को कुचलकर और भी बड़े; और अन्त में उत्पादन और पूंजी का ऐसा केन्द्रीकरण हो गया कि एकाधिकार की स्थापना हो गई। परिणाम में, बड़े बड़े सिण्डीकेट और ट्रस्ट बने, और कतिपय बई-बड़े बैंकों में पूँजी एकत्रित हो गई। और साथ ही वह प्रतिस्पर्धा जिसमे बै एकाधिकार उत्पन्न हुए, उनके साथ-साथ ही चलती रही और उसके कारण अनेक कट और तीत्र झगड़े और वैमनस्यपूर्ण प्रतिद्वन्द्रिताएं पैदा हुई। यथार्थ में एकाधिकार पूँजीवाद से एक उच्चतर अवस्था की ओर ले जाने वाली सादी है।" "जब पूंजीवाद साम्राज्यवाद की अवस्था में आ जाता है तब एकाधिकार और बड़ी पूँजी का प्रभुत्व हो जाता है, जो का बाहर भेजना विशेष महत्त्वपूर्ण हो जाता है और पूंजीपतियों के अन्तर्राष्ट्रिय एकाधिकारी गुट्ट बन जाते हैं जो संमार के टुकड़े कर देते हैं।" इस अवस्था में पूँजीवाद में धुन लग जाता है, उत्पादन में अव्यवस्था श्रा जाती है, और पूँजीवाद को अपने बढ़ते हुए माल के लिए बाजार नही मिलता। कच्चे माल और विक्रय क्षेत्रों के लिए, और विदेशों में यूँजी लगाने के लिए एकाधिकारी गुटों में संघर्ष तीव्र हो जाता है । शीघ्र ही अन्तर्राष्ट्रीय होड़ बढ़ जाती है और प्रत्येक गुट्ट अन्यों से सस्न भावों पर बेचने के लद्देश्य रो उत्पादन का मूल्य कम करना चाहता है। परन्तु उत्पादन की कीमत घटाने के लिए मजदूरी घटानी पड़ती है, मजदूरों का जीवन-स्तर घटाना पड़ता है, और उत्पादन के साधनों में विशेषज्ञों द्वारा किये हुए भुधारों के कारण लाखों मजदूर्ग को काम से हटाना आवश्यक हो जाता है। इस प्रकार जनता की क्रय-शक्ति प्रायः शून्य हो जाती है और वस्तुओं की मांग इसीलिये बहुत कुछ घट जाती है। यही विषमता आज पूँजीवाद, के सामने है। यह पूँजीवाद में प्रारम्भ मे ही अन्तर्हित रहती है और जैसे जैसे संकट बढ़ता है, यह भी बढ़ती जाती है। इसमे एक और तो पंजीपतियों और