का तो समाजीकरण हो चुका है, यद्यपि उत्पादन के साधन व्यक्तियों के हाथ में हैं । जब उत्पादन के साधन एक छोटे से वर्ग के हाथ से निकल कर समाज के हाथ मे आ जायेंगे, तभी पूँजीवाद के अन्तर की विषमता दूर हो सकेगी। मार्क्स ने कहा है कि जब पूँजीवाद उत्पादन शक्ति को अवरुद्ध कर लेता है, तब वह अवस्था आती है, जब एक नई व्यवस्था का जन्म हो सकता है। परन्तु उसका तात्पर्य यह नहीं है कि नवीन व्यवस्था अपने श्राप श्रा जायगी। उसने तो ऐसी अवस्था के आने पर नवीन व्यवस्था होने की सम्भावना बताई है। हाँ, उसकी समझ में नवीन परिस्थितियों में समाज- वादी व्यवस्था सबसे अधिक उपयुक्त है, परन्तु वह तब तक स्थापित नहीं हो सकती, जब तक मनुष्य उसके लिए सजग रूप से प्रयत्न न करें। दूसरा विकल्प फासिज्म हो सकता है। वह भी विचारणीय है, क्योकि समाजवाद और फासिज्म दोनो ही इस कठिनाई का स्थायी हल देने का दादा करते हैं। ये दोनों विचारधाराएँ भविष्य मे एक-दूसरे से बाजी लेने का प्रयत्न करेंगी और इनके संघर्ष के फल पर मनुष्य-जाति का भाग्य निर्भर करेगा। फासिज्म फासिज्म पर विचार करते हुए मै यथाशक्ति उन भ्रान्तियों से दूर रहने का प्रयत्न करूँगा जो उसके विरुद्ध पैदा की गई है। मै फसिज्म को उस श्रातक-राज्य से नहीं जाँचूँगा जो सत्ता प्राप्त करते ही फासिस्टो ने स्थापित किया था। पार्लियामेण्टीय संस्थाओं का अन्त, अन्य राजनैतिक दलों और संगठनों का दमन, यहूदियों पर अत्याचार का नग्न ताण्डव-ये कुछेक लांछन है जो फासिस्टों पर लगाये आते हैं। परन्तु उन्होंने जो व्यवस्था स्थापित की है उसका यथार्थ मूल्य प्राँकने के लिए हमें इन बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिये । उनका दावा है कि उन्होंने पूँजीवाद और