उत्पन्न पदार्थों का मूल्य असामान्य रूप से बढ़ जाने के कारण, तालुकेदार अपने पुराने प्रासामियों को बेदखल करके नयी को अधिक मूल्य पर अमीन उठाने के लोभ मे फंसे हुए थे । कृषकों का आन्दोलन कांग्रेस के श्रमहयोग आन्दोलन के साथ ही हुआ और गवर्न मेण्ट को स्थिति सँभालने के लिये कुछ करने को बाध्य होना पड़ा। परिणामतः लगान-कानूनी में संशोधन किये गये । यह पहला ही अवसर था, जब अवध में कृषक-वर्ग में तीव्र जागृति और हलचल हुई । शनैः शनैः कृषकवर्ग का परम्परागत दृष्टिकोण बदलने लगा और जी- दागे और भूमिपतियों को अपना स्वाभाविक नेता न मानकर वे कांग्रेस के म यवगाय नेतृत्व की ओर सहायता और सहारे के लिए देखने लगे। सन १६२६ मे संसार में एक भाग कृषि-संकट पाया। भारत जमे औपनिवेशिक देशा पर उसका विशेष प्राघात हुगा, क्योंकि साम्राज्यवादी दंशो ने अपना बहुत सा संकट-भार उपनिवेशो पर डाल दिया । स्टालिन ने १७ वा कांग्रेस को दी गई अपनी रिपोर्ट में कहा था "पूजीवाद द्यो- गिक स्थिति को कुछ-कुछ संभालने में सफल हो गया है.......उपनिवेशो और आर्थिक दृष्टि में दीन-हीन देशो के कृषको का गला काटकर, और उनके श्रम से उत्पन्न वस्तुओं, मुख्यतः कच्चे माल और खाद्य पदार्थो के भाव और भी घटाकर ।" उस भयानक मन्दी के कारण लाखो कृषि-कमां बरबाद हा गये। उनकी जो थोडी-बहुत बचत थी वह समाप्त हो गई और चांदी के गहनो के रूप में उनको जो पूँजी थी, वह भी भूमि-कर के पेट में चली गई । कृषको के ऊपर ऋण का बोभ और भी अधिक बढ़ गया । बहुत कृषक और छोटे जमीदार अपनी जमीनें उन लोगों को दे देने के लिए बाध्य हुए जिनके पास अधिक पूँजी थी और जो भूमिपतियों को मुँह माँगा देने में समर्थ थे। इस संकट के कारण छोटे और मध्यम किसान पूर्णत: उजड गये। दरिद्र ग्रामीणों की दशा दयनीय थी। व्यापक अमन्तोष उठकर