पृष्ठ:समाजवाद और राष्ट्रीय क्रान्ति.pdf/६७

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उसका दास बन जाने की ही स्वतन्त्रता मिली । पूँजीवाद के नवीन आथिक ढाँचे को श्रम प्राप्त करने के लिए, उनकी इस स्वतन्त्रता की यावश्तकता थी। परन्त, प्रथम विश्व युद्धे और रूसी क्रान्तिने कृषकों के लिए एक नया युग ला दिया । रूसी क्रान्ति ने उनकी दासता की श्रृंखलायें ही नहीं तोड़ दी। बनिक उनके ऊपर सत्ता न्यौछावर कर दी। उसने उन प्रारम्भिक अवस्थाओं का सृजन किया, जो कृषक्स की वास्तविक स्वतन्त्रता के लिए नितान्त अनिवार्य हैं । ऋषक ने अब अपने अपमान भरे अतीत का गट्ठर उसार फेका; उनकी परम्परागत गतिहीनता लुप्त हो गई। उनकी विचार मंकीर्णता का दुर्गरता गया। अब वे केवल भूमि को भूख से व्याकुल म है, बल्कि उन्होंने न्याय, स्वतन्त्रता और संस्कृति का भी आश्वासन थाहा । उन्हें अपने अपर भरोसा होने लगा, और इतिहास में प्रथम वार व अपमा राजनैतिक महत्व अनुभव करने लगे। युद्ध-अनित सामाजिक उथल-पुथल में भी पूर्वी यूरोप के कृषि-प्रधान देशो की श्राकृति बदन्न डाली । भूमिपतियों का पतन हुआ और उनके विशेषाधिकार,अपर्याप्त हर्जाना देकर अथवा विना क्षतिपूर्ति किये ही, उनमे छीन लिए गये । इस बार के मुधार स्वप्नवत नहीं हुए है। वे वास्तव में कान्तिकारी आकार-प्रकार के है। उनसे देशों के मामाजिक और राजनैतिक जीवन पर भूमिपतियों का सामन्तशाही श्राधिपत्य समाप्त हो गया है । पूर्व का आगे बढ़ना प्रथम विश्वयुद्ध ने पूर्व पर भी गहरा प्रभाव डाला । भारत मे कृषक श्रान्दोलन का प्रारम्भ युद्धकाल में ही हुआ । अवध के कुछ परमनो में बंदखली के कानूनी में संशोधन कराने और दाब-धोस की लागों और बेगार को मिटाने के लिए एक शक्तिशाली अान्दोलन उठ खडा हा । कृषि में