( ४३ ) संघर्षों का भी संचालन किया था। आम चुनावों के समय कांग्रेस को प्रतिष्ठा और प्रभाव देहात में बहुत बढ़े हुए थे। पहले पहल राष्ट्र-व्यापी पैमाने पर जनता गतिशील थी । सब ओर नव-जीवन हिलोरें ले रहा था। जनता ने अपनी उदासीनता उतार फेंकी थी, और सोचना-समझना प्रारम्भ कर दिया था। वह अपने से पूछ रही थी कि जमीदारों को, जो ग्राम की सामाजिक अर्थ-व्यवस्था में कोई उपयोगी भाग नही लेते, उसकी कमाई के एक बड़े भाग से उसको वंचित करने का क्या अधिकार है ? फिर इस समय समाज-शास्त्री यह बता रहे थे कि भूमि जो मनुष्य प्रयत्नी मे पैदा नहीं होती और जो उसके जीवन के प्रारम्भिक साधना में से एक है, उस पर व्यक्तियों का निरंकुश अधिकार अनुचित है। सिद्धान्त के क्षेत्र में, सम्पत्ति पर वैयक्तिक श्रधेकार मानने का विचार हटता गया और उसके स्थान पर उसे सामाजिक वस्तु मानने का विचार आता गया। प्रथम विश्व युद्ध की आवश्यकताओं ने इस विकास में योग दिया क्योकि उस समय प्रत्येक राज्य को अपने नागरिको के सम्पत्तिक अधिकार कम करने पड़े। इटली मे यह नया सिद्धान्त व्यक्त रूप मे राज्य द्वारा मान लिया गया और उसने भूमिपतियो मे उस भूमि को छीन लिया जिसका वे स्वयं उपयोग नहीं करते थे। जर्मन जनतन्त्र के नये विधान ने अपनी १५३ वी धाग मे इस नवीन सिद्धांत का प्रतिपादन किया। उममें कहा गया था : "सम्पति के साथ कर्तव्य लगे उसका उपभोग सर्व हित के लिए सेवा रूप मे होगा।" धारा १५५ मे भी कहा गया था कि “भूमि का उपयोग और दोहन भूमिपति का समाज के प्रति कर्तव्य है।" रूसी क्रान्ति ने तो अपने भूमि-विषयक श्रादेशो से पुराने विचार का गंदा ही निकाल डाला। कृषि प्रधान देशों पर इसका बड़ा प्रभाव हुआ और नवीन दृष्टि-कोण व्यापक रूप से मान्य सममा जाने लगा। आर्थिक मन्दी से हमारे देश के जीर्ण अार्थिक ढाँचे की पोल खुल 1