पृष्ठ:समाजवाद पूंजीवाद.djvu/१०३

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सामाजवाद:पूँजीवाद

अच्छी जमीन के मालिक अपनी ज़मीन किराये पर उठा देते हैं और काम करना बन्द करके किराये पर या जमा कि वे कहते हैं, जमीन की मालिकी पर अर्थात् दूसरों के श्रम पर निर्वाह करते हैं। • जब वडे-बडे नगर बसते हैं और उद्योग ग्बड़े होते हैं तो ज़मीन बहुत तेज़ हो जाती है । लन्दन के खास-खास बाजारों में जमीन के टुकड़े दम लाख गिनी प्रति एकड़ के हिसाब से बिकते हैं। जमीन को एक शादी ने किराये पर लिया, दूसरे को कुछ मुनाना लेकर उठा दिया, दूसरे ने तीसरे को उठा दिया । इस प्रकार किराये पर उठाने वालों की संख्या आधे दर्जन तक पहुंच सकती है, और इन सब के लिए रुपया टस श्रादमी को देना होता है जो अखौरी किरायेदार होता है । पिछले डेढ़ सौ वर्षों में यूरोप के गॉव दूसरे महाद्वीपों की पहिले दर्जे की बस्तियों में परिणत हो गए हैं और करोड़ों रुपये पैदा करते हैं, फिर भी उनके अधिकांश अधिवासी जिनके श्रम से इतना रुपया पैदा होता है, कुछ अच्छी दशा में नहीं है। उनकी हालत उस समय में भी बराब है जबकि उनके गाँव बहुत छोटे थे और जमीन की कीमन फ्रो एकड़ एक गिन्नी भी न थी। किन्तु इस अर्से में ज़मींदार चूब मालदार हुए हैं। उन्हें दिन भर बेकार बैठे-बैठे इनना मिल जाता है जितना कि बहुत सों को साठ सोल की उनों तक मेहनत करते रहने पर भी नसीब नहीं होता। ___ यदि हम ने ज़ोर दिया होता कि कानूनी सिद्धान्त के अनुसार ज़मीन राष्ट्रीय सम्पत्ति होनी चाहिए, सब किराये राष्ट्रीय कोप में जमा होने चाहिएं और उनसे सार्वजनिक सेवा कार्य होना चाहिए, तो दुनियां में कहीं भी शहरों की हालत इतनी खराब न हुई होती जिननी कि वह बाज है।