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समाजवाद : पूँजीवाद


ऐसे आविष्कारक कम होते हैं जो पूँजीपतियों से अपने आविष्कार की पूरी कीमत वसूल कर सकें। उन्हें कई बार तो अपने आविष्कार का अधिक भाग आवश्यक नमूनों और परीक्षणों का न्यय चुकाने के लिये कुछ सौ रुपयों में ही बेच देना होता है । कोई-कोई यन्त्रकला, निर्माण-कला तथा संगठन-कला में दस मज़दूर खुद ही व्यवसायियों द्वारा खरीद लिये जाते हैं । वे उनके आविष्कारों की अच्छी-सी कीमत देकर व्यवसाय में शामिल कर लिये जाते हैं, किंतु सीधे-सादे आविष्कार का भाग्य ऐसा नहीं होता । यूरोप में पूंजीपतियों ने चौदह साल के बाद सब आविष्कारों को राष्ट्रीय सम्पत्ति बनाने का एक साम्यवादी कानून भी जैसे-तैसे बनवा लिया है । इस अवधि के बाद वे आविष्कारकों को बिना कुछ दिये उनके आविष्कारों का उपयोग कर सकते हैं, इस प्रकार वे शीघ्र ही मान बैठते हैं कि इन यन्त्रों का आविष्कार स्वयं उन्होंने ही किया है और उनसे जो कमाई होती है, वह भी उनकी अपनी कमाई है।

यदि निजी रुपया अयोग्य हाथों में न होता तो यह अयोग्य विभाजन भी न हो पाता । यदि वह राष्ट्र के हाथ में होता और वह उसका उपयोग सर्व-साधारण के हित के लिये करता तो भारी पूँजी से व्यवसायों का संचालन विशुद्ध लाभ की बात होती। उससे आज की जैसी भयंकर स्थिति कभी पैदा न होती।

अब मारी पूंजी से व्यवसायों का संचालन स्थायी हो चुका है। चार पैसे में धागे की गिट्टी मिल सके इसके लिए लाखों की पूंजी लगा दी जाती है, किन्तु समाजवादी व्यवस्था में ये लाखों रुपये निजी नहीं, सार्वजनिक कोप से लगेंगे और धागे की गिट्टी का मूल्य दो पैसे से भी कम पड़ेगा । संक्षेप में, पूंजी से व्यवसाय चलाना एक बात है और पूँँजीवाद बिल्कुल दूसरी वात । यदि हम पूँँजी को अपने नियन्त्रण में रक्खेंं तो व्यवसाय विशेष के लिये भारी पूँँजी के संग्रह से हमको कोई हानि न पहुंचेगी।

पूँँजी का न तो कोई अन्तःकरण होता है और न कोई देश । पूँँजीवादी यदि अपने देश में मद्य-निषेध कानून द्वारा मुनाफा कमाने से