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पूँजी के अत्याचार

पूंजी के अत्याचार ११५ रहेगा ही। सभ्य देशों में जब कारखानों की बनी चीजों की खपत पूरी हो चुकती है तो पूंजीपतियों के पास केवल यही मार्ग रह जाता है कि वे अपनी चीज़ों को विदेशों में भेजे । किन्तु सभ्य देश तो भारी- अन्तर्राष्ट्रीय भारी तटकर लगा कर विदेशी चीज़ों को अपने भीतर क्षेत्र में आने नहीं देते । मंरक्षणशून्य असभ्य देश ही ऐसे रह जाते हैं जहां वे अपनी चीज़ों को खपा सकते है । जिन देशों के लोग सीधे-सादे होते हैं उन्हें पूंजीपति और उनके कारिन्दे रखूब लूटते हैं और तंग करते हैं । जब वे लोग उनका मुकाबिला करते हैं तो वे अपनी शक्ति से उन्हें जीत लेते हैं और उन पर राज्य करने लग जाते हैं । इस तरह वे अपना व्यापार बढ़ाने के लिए सदा नया-नया क्षेत्र हथिया लेने की ताक में रहते हैं और जब मौका मिलता है तभी अपना साम्राज्य बढ़ाते हैं । ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना ऐसे ही हुई है। किन्तु अकेला निटिश साम्राज्य ही होता तो कोई बात नहीं थी । ब्रिटिश साम्राज्य के अलावा भी दुनिया में ऐसे देश हैं जिन में साम्राज्यवादी स्वप्नदर्शी और विदेशी बाजारों में फैलने की चेष्टा करने वाले अत्यन्त कुशल व्यापारी रहते हैं जिनकी पीठ ठोक्ने को उनमें वढी-बड़ी स्थल- सेनायें और जल सेनायें भी होती है। जल्दी या देर से जब वे अपनी सीनायों को अफ्रीका और एशिया में बढ़ाते हैं तो उनमें श्रापस मे संघर्ष पैदा होता ही है। एक बार अफ्रीका में इंग्लैण्ड और फ्रांस में लडने की नौवत आई थी, किन्तु पीछे उन्होंने सूनान को श्राधा-आधा बाँट कर उसे टाल दिया। इसके पहिले फ्रांस अल्जीरिया और वास्तव में तुनसिया को ले चुका था और स्पेन मोरको में घुस रहा था। इटली ने निपोली पर धावा बोल दिया था और इंग्लैंण्ड ने मिश्र और भारतवर्ष को खा लिया था। जर्मनी ने देखा कि अब उसके लिए कुछ नहीं रहा है तो उसने सन् १९१४ में युद्ध का ऐलान कर दिया । सन् १९१८ तक खूब लड़ाई हुई । एक घोर इंग्लैण्ड, फ्रांस और इटली था तो दूसरी ओर जर्मनी । जर्मन कारखानों की बनी चीज़ खपाने के लिए जर्मनी को