उत्पत्ति के साधनों का राष्ट्रीयकरण हमने देख लिया कि बैंक और रुपया सभ्यता के श्रावश्यक अंग बन चुके हैं । जहाँतक रुपया बनाने के व्यवसाय का ताल्लुक है, उसका पूरी तरह राष्ट्रीयकरण हो चुका है । सय रुपया सरकारी टकसाल में ही बनाया जाता है । निजी तौर पर सिक्के बनाना या बैंकों का उनको गलाना कानून की रू से अपराध करार दे राष्ट्रीयकरण दिया गया है। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो लोग चाहे जैसे और चाहे जितने सिक्के बनाकर अपना मतलब सिद्ध करते और समाज में व्यवस्था फैल जाती ! अवश्य ही लोग रुपये के बजाय हुण्डियों और चेकों का उपयोग करते हैं, किन्तु यह तभी- तक सम्भव है, जबतक कि राष्ट्रीय रुपये का चलन है। बैंकों का अभी राष्ट्रीयकरण नहीं हुधा है। अतः बड़े व्यापारी तो प्रचुर कमीशन देकर लाखों रुपया पा लेते हैं, किन्तु छोटे व्यापारियों को जिनकी ज़रूरतें भी छोटी ही होती है, बहुधा सूद की बहुत ऊंची दर पर सूदखोरों से रुपया उधार लेना पड़ता है। कारण, बैंक उनको रुपया देना थपनी शान के खिलाफ समझते हैं। किन्तु जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो जायगा, तब उनका उद्देश्य ग्राहकों के हितों को बलिदान करके मुनाफा कमाना न होगा, बल्कि वे देश के भले के लिये सब छोटे- बड़े व्यवसायों के लिए सस्ते-से-सस्ते भाव पर पूजी सुलभ करेंगे। इसके विरुद्ध बैंकों के संचालक यह दलील देते हैं कि बैंक-व्यवसाय इतना रहस्यपूर्ण और कठिन है कि कोई भी सरकारी विभाग उसका सफलतापूर्वक संचालन नहीं कर सकता । जो लोग ऐसा करते हैं वे खुद मी अपने व्यवसाय को अधूरा ही समझते हैं। यह उनकी ग़लत सलाह का ही परिणाम था कि गत महायुद्ध के बाद यूरोप में सर्वनाश के दृश्य
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