१८४ समाजवाद : पूंजीवाद बताया जा चुका है कि निजी सम्पति और व्यक्तिगत मुनाफाचोरी की प्रथा को तभी उटाना चाहिए. जबकि सरकार सब लोगों को काम देन की व्यवस्था कर सके और उत्पादन एक पण के लिए भी न रहे। अन्यथा देश को बेकारी और ग़रीबी का सामना करना पटंगा। यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि आजकल किसी भी उद्योग को चलाने के लिए जहां मजदूरी की अावश्यकता होती है, वहाँ प्रवन्धकों और कुशल कारीगरों के बिना भी काम नहीं चल सकना। कोरे मजदूर जहाल के मल्लाहों के समान होते हैं जो क्सान के अभाव में जहाज को निर्दिष्ट स्थान पर नहीं पहुंचा ग्यते । अवश्य ही कारवानों के प्रबन्धक, जब वे पूंजीपतियों के अधीन होते हैं, मजदूरों के प्रति यहा पुरा व्यवहार करते हैं। इसलिए जब क्रान्ति होती है तो उन्हें लोगों का शत्रु मममा जाता है और निकाल बाहर पिया जाता है। किन्तु जबतक नई सरकार के पास उनकी जगह लेने वाले योग्य व्यक्ति न हो तबतक ऐसा फरना उचित नहीं होता। दूसरी विचारणीय बात यह है कि सरकारी नौकर अपने अनन पर ही सन्तोप नहीं करते । जो काम उन्हें साधारणतः करना चाहिए, टमे करने के लिए वे जनता से रिश्वत साते हैं। पूंजीवादी समाज में यह बीमारी इतना घर कर गई है कि कई देशों में सरकारी नोकर अपने मातहतों की तनख्वाहें चुराते हैं और यह सिलसिला ऊपर से लगाकर नीचे तक जारी रहता है। तीसरे यह परम्परा बन गई है कि सरकारी नौकरों को जनता के प्रति उहण्ड व्यवहार करने में संकोच नहीं होता और जो वेतन उन्हें मिलता है, उसके बदले में कोई काम नहीं करते। रूस में जारशाही का खात्मा सन् १९१७ में लिवरल क्रान्ति द्वारा हुश्रा और उसके स्थान पर पार्लमेण्टरी सरकार स्थापित हुई। उसके कर्णधारों ने बातें तो बड़ी-बड़ी बनाना शुरू की, किन्नु हालत में कुछ सुधार न किया । रूस किसानों का देश है। इन किसानों को सन् १९१४-१८ के युद्ध में मित्रराष्ट्रों के पक्ष में लड़ने के लिए सेना में भर्ती
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