इस प्रकार शान्ति स्थापित करने का वादा पूरा किया। इसके लिए उसे रूसी पोलैण्ड छोड़ना पड़ा और वाल्टिक प्रान्तों में स्वतंत्र प्रजातंत्रों का कायम होना बर्दाश्त करना पड़ा । इस पर मित्रराष्ट्रों ने और वहाँ के अनेक उग्र क्रान्तिकारी समाजवादियों तक ने लेनिन की इस कार्य के लिए निन्दा की कि उसने अपने देश को यूरोप के शत्रु अर्थात् तत्कालीन जर्मन सरकार के हाथ वेच दिया । लेनिन और उसके मुट्ठीभर अनुयायियों को इसके सिवा कुछ चिन्ता न थी कि साम्यवाद की स्थापना हो । किन्तु वे अधिकारारुढ उन किसानों, सैनिकों और मल्लाहों की सहायता से हुए थे जो साम्यवाद से उतने ही अपरिचित थे, जितने कि गणित से । वे केवल शान्ति के लिए ही उत्सुक न थे, बल्कि ज़मीन पर किसानों का स्वामित्व चाहते थे जिसे कि व्यक्तिगत सम्पत्ति का उग्र और कट्टर रूप कहना चाहिए। ऐसे लोक-समर्थन के सहारे इन मुट्ठीभर आदमियों ने ऐसी सेना खड़ी की है जो दुनिया में सबसे बड़ी है और खेती की ऐसी पद्धति जारी की है जिसका सम्मिलित रूप मुख्य अंग । मुजिन किसानों ने, जो कभी बदल ही नहीं सकते, अपनी आंखों से देख लिया कि उनके बच्चों को उनसे बिल्कुल भिन्न बना दिया गया है। किन्तु जिस तरीके से यह परिणाम प्राया, वह कुछ अच्छा न था। अवश्य ही यह उतना कठोर और लम्बा न था, जितना कि कारखानों का पूँजीवादी विकास का तरीका होता है। वर्षों तक परित्यक्त बों की छोटी-छोटी टुकड़ियां देश में जहां-तहां घूमती हुई नजर आती थीं। उनका काम था भीख मांगना और चुराना । शिक्षाधिकारियों ने इन बच्चों को पकड़ने और सुधारने के लिए घोर श्रम किया । वे बार-बार भाग जाते थे। बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाया जा सका कि इधर- उधर मारे-मारे फिरने की अपेक्षा अनुशासित जीवन वास्तव में अधिक स्वतंत्र और सुखी जीवन है। बाद में इनमें से कुछ ऊंचे-ऊंचे ओहदे पर भी पहुंचे, किन्तु इसमें कुछ भी अत्युक्ति नहीं है कि उनमें से हजारों प्यास, शीत और रोगों के शिकार बन गये।
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