र अाज रूस में एक भी बालक ऐसा न मिलेगा, जो भूखा हो, फटे- हाल हो अथवा अपने अनुकूल शिक्षा न पा रहा हो । लेनिन यह जानता था कि साम्यवाद की सफलता उस पीढ़ी पर निर्भर करती है जो दुनिया के लिए बिल्कुल नई हो । उसने जो शासन-व्यवस्था स्थापित की, उसमें बालिा व्यक्तियों को शुरू में पेट पर पट्टी बाँधनी पड़ी और रूखा-सूखा खाकर कठोर परिश्रम करना पड़ा, किन्तु बच्चों का अमीरों की भांति लालन-पालन किया गया और ऐसा करने में खर्च की कुछ परवाह न की गई । इसका नतीजा यह हुआ है कि कार के जमाने की अपेक्षा साम्यवाद के अधीन १६ वर्ष के लड़के-लड़की दो इंच लम्बे और चार पौण्ड मारी होते हैं। मार्स ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया था कि मुनाफा कमाने के उद्देश्य से कोई न्यापार न किया जाय। बोल्शेविकों ने तदनुसार दुकानदारों को दुकानों से निकाल बाहर किया और चीजों का एक जगह ढेर लगा दिया । फलस्वरूप मास्को में कोई दूकान बाकी न वची। अवश्य ही लोगों को क्रय-विक्रय करना पड़ता था। इसके लिए के गलियों और बाजारों में खड़े हो जाते । ऊंचे-ऊंचे धरानों की औरते मामूली विक्रेताओं के साथ अपने जेवर बेचती हुई दिखाई देती थीं और शाम होने पर उन कमरों में रहने के लिए चली जाती थीं, जिनमें दस-दस श्रमजीवी एक साथ सोया करते थे। और कि मकानों की दुरुस्ती के लिए कोई खास व्यक्ति जिम्मेदार न था, इसलिए उनकी हालत शीघ्र ही शोचनीय हो गई । एक मंजिल से दूसरी मंजिल में जाने के लिए खटोलों ने काम करना बन्द कर दिया, विजली की वत्तियाँ बेकार होगई और सफाई की दशा बयान नहीं की जा सकती। किन्तु यह सब साम्यवाद न था, पूंजीवाद की वर्षांदी का नज़ारा था। पर सन् १९३१ के लगभग रूस की हालत बिल्कुल बदल गई । मि० वर्नार्ड शा लिखते हैं कि जब वह रूस में गये तो उनके साथ ऐसा बर्ताव किया गया मानों वह स्वयं कार्लमार्स हों । उन्हें वहां उन भयंकरताओं के दर्शन नहीं हुए जो पूँजीवादी पश्चिमी राष्ट्रों में मजदूरों की तंग
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