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रुसी सान्यवाद


सौ वर्ष पहले राज्य-संस्थाओं को सिर्फ पुलिस का काम करना पड़ता था। शिक्षा, स्वास्थ, उद्योग-धन्धों आदि कामों से उनका कोई सरोकार न होता था। उस समय लोगों में इतना अमन्तोप न होता था, जितना कि आजकल की पार्लमैराट-पद्धति की सुस्ती और सरकारी नौकरों की अयोग्यता के प्रति पाया जाता है। इसका कारण यह है कि आजकल सरकारों का कार्य-क्षेत्र बहुत बढ़ गया है । उन्हें राष्ट्रीय जीवन के हर विभाग की व्यवस्था करनी पड़ती है।

जनता की बढ़ी हुई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यूरोप में लोकतंत्रात्मक शासन-प्रणालियों का सूत्रपात किया गया । किन्तु इनमें यहस-मुबाहिसा अधिक होता है और जो काम तत्काल होना चाहिए, वह महीनों और सालों बीत जाने पर भी नहीं हो पाता । रूस ने जिन बातों को अल्पकाल में सिद्ध कर दिखाया अधांत बेकारी और दरिद्रता जैसे भयंकर मानव-शत्रुओ को मार भगाया, उनको कथित लोकतंत्री देशों में अनिवार्य बताया जाता है । इंग्लैंएड का ही उदाहरण लीजिए। मताधिकार को व्यापक बनाने के लिए वहाँ बडे-बड़े आन्दोलन हुए और यह आशा की गई कि उनके परिणाम-स्वरूप आदर्श समाज-व्यवस्था कायम की जा सकेगी। सन् १९१८ में स्त्रियों को मताधिकार मिलने के बाद जनता को वालिग मताधिकार मिल गया और इस प्रकार पार्लमैराट पर अधिक-से-अधिक लोक-नियंत्रण स्थापित हो गया। किन्तु इसका नतीजा क्या हुआ ? स्त्रियों को मताधिकार मिलने के बाद पार्लमेण्ट का जो चुनाव हुआ, उसमें केवल एक महिला चुनी जा सकी। इतना ही नहीं, मज़दूर-दल का समाजवादी नेता तक चुनाव में हार गया । वे सब आशायें हवा में उड़ गई जो वालिग मताधिकार के कारण पैदा हुई थीं और स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ा। शासन-सूत्र उन चन्द पूंजीपतियों के हाथ में ज्यों-का-त्यों बना रहा जो पैसे के जोर पर लाखों स्त्री-पुरुषों के वोट खरीद सकते थे। लोकतंत्र प्रणाली की इस विफलता के कारण ही जर्मनी और इटली में फासिस्ट नेताओं ने पार्लमैराटों को पीछे धकेल दिया है और रूस में कांग्रेस साल में एकाध बार बुलाई