और अपनी-अपनी आवश्यकतानुसार कम या ज्यादा पानी लेते हैं।
इसी तरह सडक बनाने, उन पर रोशनी करने, पुलिस के सिपाहियों के गश्त लगाने, नदियों पर पुल बाँधने, कूड़ा-कर्कट हटाने आदि कामों के लिए लोग पैसा देते हैं। कोई यह नहीं कहता कि 'मैं रात में कभी सड़क पर नहीं जाता, मैंने पुलिस से अपने जीवन में कभी सहायता नहीं ली, नदी के उस पार मुझे कोई काम नहीं है और न मैं कमी पुल पर से गया ही है, इसलिए मैं इन चीज़ों के खर्च के लिए कुछ नहीं दूंगा।' हर एक आदमी को मालूम है कि बिना रोशनी, सड़कों, पुलों, पुलिस और सफाई के नगरों का काम नहीं चल सकता । सभी लोगों को इन सार्वजनिक सेवा-साधनों से लाभ पहुंचता है । जो बात पुलिस के सम्बन्ध में, वही राष्ट्रीय सेना के सम्बन्ध में, म्यूनिसिपल भवनों और कौंसिलों तथा असेम्बली के भवनों के सम्बन्ध में कही जा सकती है । इन सभी का खर्च सार्वजनिक कोप से दिया जाता है, जिसे हम भिन्न-भिन्न प्रकार के कर दे कर भरते हैं, इसलिए इन सभी का साम्यवादी रूप है। इनसे सम्पत्ति का विभाजन सर्व-हित की दृष्टि से होता है।
इस साम्यवाद को कायम रखने के लिए जब हम कर देते हैं तो हम सार्वजनिक कोप में अपना सर्वस्व नहीं दे ढालते, अपनी शक्ति के अनुसार देते हैं, जिसका अनुमान हमारी चल-अचल सम्पत्ति से किया जाता है। इस प्रकार कुछ बहुत कम देते है और कुछ बहुत अधिक; किन्तु लाम सब समान ही उठाते हैं। अजनवी और वेघर वाले देते कुछ नहीं; किन्तु लाभ उतना ही उठाते हैं । जवान और बूढ़े, राजा और रंक, धर्मात्मा और दुरात्मा, काले और गोरे, मितव्ययी और खर्चीले, शरावी और समझदार,भिखारी और चोर, सब इन साम्यवादी सुभीतों और साधनों का, जिन पर इतना खर्च होता है, समान उपयोग करते हैं।
हम जब पुलों से नदी पार करते हैं तो हमें ऐसा लगता है मानो ये कुदरती हैं । जब सड़क पर चलते हैं तो भी हमे यह भान नहीं होता कि उस पर हमने कुछ खर्च किया है, किन्तु यदि पुलो को टूट जाने दिया जाय और हमें तैर कर या नाव के सहारे नदी को पार करना पड़े तो हमें