४२ समाजवाद : पूंजीवाद यदि हम जाति को उन्नत बनाने के लिए पति-पन्नी चुनने का फाम राजनैतिक सत्ता के हाथ में सौंपने को तैयार हो भी जायं तो अधिकारयों की कठिनाइयों का पार न होगा । वे मोटे तौर पर इस तरह शुरू कर सकते हैं कि क्षय, पागलपन, गर्मी-सुजाक, या मादक द्वन्यों की जिन लोगों को ज़रा भी छून लग गई तो उन्हें शादी न करने दें। किन्तु आज करीब-करीब कोई कुटुम्ब ऐसा नहीं मिलेगा जो इन रोगों से सर्वथा मुक्त हो, फलतः किसी का भी विवाह न हो सकेगा। और नैतिक श्रेष्ठता का वे कौनसा नमूना वान्छनीय समझेंगे ? दुनिया में भिन्न-भिन्न प्रकार के मनुष्य वसते हैं। एक सरकारी विभाग यह मालूम करने की कोशिश करें कि मनुष्यों के कितने प्रकार होने चाहिएं। और फिर यथायोग्य शादियो द्वारा उनको पैदा कराए ! यह खयाल मनोरंजक तो अवश्य है, किन्तु व्यावहारिक नहीं है। सिवा इसके कि लोगों को अपनी जोड़ियां आप बना लेने दी जाएं और सत्परिणाम के लिये प्रकृति पर भरोसा किया जाय, इसका और कोई उपाय नहीं है। आजकल पश्चिमी देशों में जब जोड़ी चुनने का प्रसंग आता है तो हरएक कितनी पसन्द से काम लेता है ? पहिली ही दृष्टि में प्रेमासक्त करके प्रकृति किसी स्त्री को उसका ऐसा जोडीदार बता दे सकती है, जो उसके लिए सर्वश्रेष्ठ हो, किन्तु यदि स्त्री के पिता और जोड़ीदार की आय में समानता न हो तो जोडीदार स्त्री के वर्ग से बाहर हो जाता है, सम्पत्ति के हिसाब से नीचे या ऊँचे वर्ग में चला जाता है और उसको नहीं पा सकता । स्त्री अपनी पसन्द के पुरुप के साथ विवाह नहीं कर सकती, बल्कि जो मिल सके उसे उसके ही साथ शादी करनी पड़ती है और बहुधा यह पुरुष अपनी पसन्द का ही पुरुप नहीं होता। पुरुप की भी यही दशा है। लोग जानते हैं कि प्रेम के बजाय रुपये या सामाजिक पद के लिए विवाह करना अप्राकृतिक है। फिर भी वे रुपये या सामाजिक पद-प्रतिष्टा या दोनों ही के लिए विवाह करते हैं। कोई स्त्री भंगी के साथ शादी नहीं कर सकती और उमराव उसके साथ शादी नहीं
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