प्रयोग द्वारा उसकी परीक्षा हो चुकी है । सभ्य दुनिया के दैनिक काम का
अधिकांश हिस्सा समान वेतन पाने वाले व्यक्ति-समूहों क्या समान द्वारा सम्पन्न होता है, सदा हुआ है और आगे भी आयसम्भव है ? हमेशा होना चाहिए । वे लम्बे हो या नाटे, गोरे हो या
काले, तेज़ हो या धीमे, युवक हाँ या वृद्धावस्या के किनारे पहुँँचे हुए, शराव-विरोधी हो या शराबी,सनातनी हों या सुधारक, विवाहित हो या अविवाहित, क्रोधी हो या शान्त-स्वभाव वाले, सन्यासी हो या दुनियादार-संक्षेप में, उन सब भेदों का जो एक मनुष्य को दूसरे से असमान बनाते हैं, जरा भी खयाल नहीं किया जाता। हर व्यवसाय में परिमाणित (Standard) मजदूरी दी जाती है। हर सार्वजनिक विभाग में कर्मचारियों को परिमाणित वेतन मिलता है और स्वतंत्र पेशे में फीस इस तरह निश्चित की जाती है कि उस धन्धे को करने वाला कुलीनता के एक खास परिमाण के अनुसार जीवन-निर्वाह कर सके । यह परिमाण समस्त धन्धे के लिए एक सा होता है। पुलिममैन, सिपाही और ढाकियों के वेतन, मजदूर, खाती और राज की मजदूरी और न्यायाधीश नया धारा-सभा के सदस्य के वेतन में अन्तर हो सकता है, उनमें से कुछ को साल में तीस रुपये से भी कम और कुछ को पाँच हजार से भी अधिक मिल सकता है, किन्तु सब सिपाहियों को एक-सा वेतन मिलता है, न्यायाधीशों और धारा-सभा के सदस्यों के लिए भी वही बात है। यदि किसी डाक्टर से पूछा जाय कि वह पांच रुपये, दस रुपये, पचास रुपये या पांच सौ रुपये के बजाय चार रुपये, दो रुपया, एक रुपया या आठ ही आना फीस क्यों लेता है तो वह सिवा इसके और कोई अच्छा कारण न यता सकेगा कि मैं वही फीस लेता हूं जो दूसरे डाक्टर लेते हैं और दूसरे डाक्टर इतनी फीस इसलिए लेते हैं कि उससे कम में वे अपनी स्थिति कायम नहीं रख सकते।
जब हमें कोई अविवेकी व्यक्ति तोते की भाँति यह दुहराता हुआ
मिले कि यदि हरएक को बराबर रुपया देंगे तो भी साल भर के भीतर-भीतर वे पहिले की तरह धनी और गरीब होजायेंगे, तो उसे केवल