सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/१०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९९
विचार-विमर्श

का लक्षण है। उन्नतिशील भाषाओं में इस प्रकार के परिवर्तन होते ही रहते हैं। किसी भाषा की योग्यता को कम करने के इरादे से ऐसे ऐसे अकिञ्चित्कर आक्षेप करना बहुत बड़ी अनुदारता है।

१९०३ ईसवी की सरस्वती के हास्यचित्र का उल्लेख कर के हिन्दी की हीनता दिखाने की चेष्टा करना सम्पादक जी की न्याय-शीलता का अच्छा नमूना है। उन्हें जानना चाहिए कि जिस उद्देश से वे चित्र प्रकाशित किये गये थे वह सिद्ध होगया है। गत दस बारह वर्षों में हिन्दी ने जितनी उन्नति की है उतनी उसने उसके पहले पचास वर्षों में भी न की थी। यदि आप इस साल की सरस्वती के दो चार भी अङ्ग उठा कर देखने की कृपा करेंगे तो आपको विदित हो जायगा कि अब अनेक सुशिक्षित जन और अनेक एम० ए०, बी० ए० हिन्दी पर अनुरक्त हैं। भूले भटकों को सुमार्ग पर लाने ही के लिए विशेष करके हास्य-चित्र प्रकाशित किये जाते हैं। और बातों का कुछ भी ख़याल न करके, केवल ऐसे चित्रों ही के आधार पर, किसी भाषा या किसी जाति के दोष दिखाना कहाँ तक न्याय है, यह सम्पादक महाशय स्वयं ही जानते होंगे।

बँगला को आप चाहे हज़ार वर्ष की पुरानी बतावें, चाहे दो हज़ार वर्ष की, किसी की प्राचीनता ही से उसके गुण-गौरव की वृद्धि नहीं हो सकती। यह बताइए कि हज़ार वर्ष के पुराने ग्रन्थ बँगला में कितने हैं। हैं भी कोई? हिन्दी में तो इस समय भी सात आठ सौ वर्ष के पुराने ग्रन्थ प्राप्य हैं। बँगला की उन्नति अभी कल से हुई है। पचास वर्ष पहले बँगला की क्या दशा थी, इस पर विचार कीजिए, तब हिन्दी की हीनता मापिए। उन्नति एक दिन में नहीं हो जाती। उसके लिए कुछ समय दरकार होता है।