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समालोचना-समुच्चय

जिस क्रम से हिन्दी का साहित्य समुन्नति लाभ कर रहा है वह क्रम यदि जारी रहा―और न जारी रहने का कोई कारण नहीं देख पड़ता―तो आप देखेंगे कि हिन्दी भी कुछ कालोपरान्त बँगला के बराबर नहीं तो उससे गज़ दो गज़ के फासले पर बैठने योग्य ज़रूर हो जायगी। इस पुस्तक के सम्पादक ने हम पर और सरस्वती पर एक बहुत बड़ा अन्याय किया है। कौन भाषा इस देश में सार्वदेशिक या राष्ट्र-भाषा हो सकती है, इस पर अपने विचार प्रकट करते समय, हिन्दी के विषय में आपने लिखा है―

“But as was pertinently observed by the Editor of the Saraswati, some ten years ago, if the richest languages of India―Bengali, Marathi and Gujarati, cannot claim to be the universal language of India what valve is there in the pretensions of a language which is despised and neglected by the educated among the Hindi-speaking people!"

हम पर ऐसा गुरुतर आरोप करते समय सम्पादक को चाहिए था कि हमारा कोई वाक्य उद्धृत करके दिखाते। यदि वे हमारे किसी लेख से अवतरण दे कर यह सिद्ध करते कि हमने हिन्दी को राष्ट्र-भाषा होने योग्य इस कारण नहीं समझा किउसका साहित्य बँगला, मराठी और गुजराती के सदृश समृद्ध नहीं, और जिन शिक्षित जनों की वह मातृ-भाषा है वही उससे घृणा करते हैं, तो हमें अपनी भूल तो मालूम हो जाती। पर आपने ऐसा करने की ज़रूरत नहीं समझी।

जहाँ तक हम जानते हैं, हमने कभी ऐसा नहीं कहा और कहा भी होगा तो किसी ऐसे प्रसङ्ग में कहा होगा जिसके विचार