पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/११

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गोपियों की भगवद्भक्ति

समझ कर ही हम आपकी सेवा में उपस्थित हुई हैं। अतएव, हे पण्डित-शिरोमणे! आप हमसे पण्डिताई न छाँटिए। आप अपने पाण्डित्य का संवरण कीजिए। कठोरता का अवतार न बनिए। नृशंस वाक्यों को मुख में न लाइए। समस्त विषयों को तृणवत् समझ कर हम आप के पादपद्म का आश्रय लेने आई हैं। हमारा स्वीकार कीजिए। व्यर्थ की बातें न बनाइए। पुरुषवचनावली और नृशंसता आपको शोभा नहीं देती।

हाँ, आपकी एक बात का जवाब रह गया! आपकी धर्मभीरुता हमें बिलकुल नहीं जँची। मनु, याज्ञवल्क्य और पराशर आदि धर्म-शास्त्रकारों के मत का मनन आपने ख़ूब ही किया, मालूम होता है। परन्तु, सरकार, इन ऋषियों से भी बड़े नहीं तो समकक्ष अन्य ऋषियों ने जो कुछ कह या लिख रक्खा है उस पर आपका ध्यान क्यों नहीं गया? उन्होंने तो हाथ उठा उठा कर, ज़ोरों से, यह कहा है कि जो जिस भाव से भगवान् की शरण जाता है उसका ग्रहण वे उसी भाव से करते हैं। यदि यह ठीक है तो आपके धर्म-शास्त्र हमारे लिए रद्दी नहीं तो कोरे क़ाग़ज के टुकड़े अवश्य हैं। हमने सुन रक्खा है कि आप ही समस्त प्राणियों की आत्मा हैं। बता दीजिए, यह सच है या झूठ? यदि सच है तो हमारे उस हार्दिक भाव के ग्रहण के लिए भी जिस पर आपका आक्षेप है, आपके विशाल हृदय में कुछ स्थान मिल सकता है या नहीं। बताइए, आप ही इसका निर्णय कर दीजिए। बोलिए, बोलिए―

यत्पत्यपत्यसुहृदामनुवृत्तिरङ्ग,
स्त्रीणां स्वधर्म इति धर्म्मविदा त्वयोक्तम्।
अस्त्वेवमेतदुपदेशपदे त्वयीशे
प्रेष्ठो भवांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा॥