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अक्षर-विज्ञान


काम लिया है; जिसमें जगह जगह पर लेखक की चिन्ताशीलता का प्रमाण मिलता है; जिसको लिखने के पहले लेखक को भिन्न भिन्न भाषाओं की अनेकानेक पुस्तकों का परिशीलन करना पड़ा है। अक्षर-विज्ञान नामक पुस्तक ऐसी ही है। ऐसी महत्वपूर्ण पुस्तक लिखने के कारण लेखक महाशय को बहुत बहुत साधुवाद। आपकी लिखी और कोई पुस्तक या और कोई लेख आज तक हमारे देखने में नहीं आया। प्रस्तुत पुस्तक आपकी पहली ही रचना मालूम होती है, और, इस पहली ही रचना में आपने ख़ूब विचारस्वातन्त्र्य और स्वाधीन चिन्ता से काम लिया है। अतएव आपकी इस पुस्तक का महत्व और भी बढ़ गया है। इस में क्या है, सो लेखक ही के मुख से सुन लीजिए―

“इस पुस्तक में तीन प्रकरणों में बताया गया है कि सृष्टि का रचनेवाला परमेश्वर अवश्य है। आदि में मनुष्य का बाप मनुष्य ही था, बन्दर नहीं। सारी सृष्टि एक ही स्थान अर्थात् हिमालय पर ही पैदा हुई थी। मूल-पुरुष भाषा बोलते ही पैदा हुए थे और जो शब्द बोलते थे वे अर्थ और ज्ञान से युक्त होते थे। दूसरे प्रकरण में दिखाया गया है कि वह आदिज्ञान वेद और आदि भाषा वैदिक थी। इसकी पुष्टिमें बतलाया गया है कि ज्योतिष, वैद्यक, नीति, धर्म, व्यापार और राज्यप्रणाली पृथ्वीभर में भारतवर्ष और वेद से ही फैली है तथा संस्कृत, ज़ेन्द, फ़ारसी, अँगरेज़ी, अरबी, स्वाहिली, चीना, जापानी और द्राविड़ी आदि संसार की प्रधान प्रधान भाषायें, जो अपनी अनेक शाखाओं के साथ दुनिया भर में फैली हैं, वेद-भाषा से ही निकली हैं। सब भाषाओं के शब्द देकर यह विषय प्रमाणित किया गया है कि वेद-भाषा मनगढ़न्त नहीं है। उसके धातु सृष्टि-नियम के अनुकूल और एक एक अक्षर, विज्ञान के अनुसार, अपना अपना अर्थ रखता है। अतः अर्थ के अनुरूप