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पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/१२९

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अक्षर-विज्ञान

लेखक महाशय ने विकास-वाद के खण्डन में जिन युक्तियों का प्रयोग किया है उनके परीक्षण की न तो हममें योग्यता है और न हमें उस काम के लिए अवकाश ही है। अतएव हम केवल आप के निष्कर्षों का उल्लेख ही करके चुप रहेंगे। आपकी उक्तियाँ नीचे लिखी जाती हैं:-

विकास-वाद के सिद्धान्त हैं―( १ ) “आपही आप, धीरे धीरे, मातापिता के अतिरिक्त भी कुछ गुण एकत्रित करते करते कुछ काल में एक नये रूप की नई जाति बन जाती है अथवा ( २ ) पृथक् पृथक्दो श्रेणियों के मिश्रण से मिश्रयोनिज जाति बन जाती है।"

पुस्तककार ने इन दोनों बातों का खण्डन करते हुए इनके सिद्धान्तों की जगह जगह पर दिल्लगी उड़ाई है। पिछली बात, अर्थात मिश्रयोनिज जाति, के विषय में लिखा है कि “क़लमी आम में आम के बीज नहीं होते" और “घोड़े-गधे से उत्पन्न हुए खच्चर से वंश नहीं चलता" अतएव गोरिला आदि बन्दरों से मनुष्य की सृष्टि होना असम्भव है। क्योंकि न्यायशास्त्र के अनुसार―“समान-प्रसवात्मिका जातिः"―अर्थात् जिसमें समान-प्रसव हो वही जाति है। मनुष्य और बन्दर के संयोग से गर्भधारणा नहीं होती। इस कारण यह सिद्धान्त ग़लत है। आपकी दी हुई युक्तियों का विचार इस शास्त्र के जाननेवाले करें। हम केवल क़लमी आम की प्रसव- शक्ति ही के विषय में एक बात कह कर आगे बढ़ेंगे। कोई तीस वर्ष हुए हम हुशङ्गाबाद के रेलवे स्टेशन पर थे। स्टेशन के पास ही एक बँगले के आँगन में हमने बम्बई के “हापुस" नामक क़लमी आम की एक गुठली गाड़ दी। उससे पौधा निकला। उसका पेड़ हो गया। आज से कोई १५-२० वर्ष पूर्व हम बम्बई से झाँसी आ रहे थे। मार्ग में हुशङ्गाबाद मिला। वहाँ हमने स्टेशन-मास्टर, दामोदर विनायक चापेकर, से अपने लगाये हुए आम का हाल