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पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/१३४

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समालोचना-समुच्चय


दयानन्द सरस्वती और उनके अनुयायियों की भी बात याद आ गई। हमारी क्षुद्र बुद्धि में ऐसी ऐसी बे-रोक और सर्वव्यापिनी उक्तियों से बड़ी हानि हो सकती है। इससे वेदों का यथार्थ भाव न समझनेवाले महाशयों की बुद्धि और विचार यदि भ्रम से आच्छन्न हो जायँ तो कुछ आश्चर्य नहीं। हम वेदों के अच्छे ज्ञाता नहीं। परन्तु अक्षर-विज्ञान के लेखक उनके पूर्णज्ञाता मालूम होते हैं। उनकी उक्तियों से यही मालूम होता हैं। अतएव उनको उचित था कि वेदों में समस्त ज्ञान भरे रहने के वे प्रमाण देते। प्रमाण द्वारा उन्हें सिद्ध करना था कि अमुक वेद के अमुक मन्त्र में यह ज्ञान है और अमुक में यह। उदाहरण के लिए “अग्निमीड़े पुरोहितं―" ऋग्वेद के इस पहले ही मन्त्र को देकर उन्हें बतलाना चाहिए था कि इसके द्वारा अमुक विद्या या शास्त्र के अमुक अंश के ज्ञान का उल्लेख है। ऐसा करने ही से आपके कथन पर समझदार आदमियों की श्रद्धा होने की सम्भावना थी। इस विज्ञान के ज़माने में―जब सैकड़ों-हज़ारों प्रकार के नये नये ज्ञानों और विज्ञानों का आविष्कार हो रहा है―कथनमात्र से संशयालु लोगों को विश्वास नहीं हो सकता कि वेदों के मन्त्ररूपी संदूक़ों में सारे ज्ञान और विज्ञान बन्द पड़े हैं। लेखक महाशय की राय है कि सृष्टि के आरम्भ में हमारे सबसे पहले पूर्वजों को, वेदों की भाषा भी सिखला कर ईश्वर ने उन्हें पैदा किया। परन्तु कृष्णयजुर्वेद ( का० ६प्र० ४) में―

"वाग् वै पराची अव्याकृता अवदत्"―

इत्यादि लिखा है। टीकाकारों के मत से इससे तो यह अर्थ निकलता है कि पुरानी वाणी अव्याकृत अर्थात् अव्यक्त थी। इन्द्र आदि के द्वारा उसका धीरे धीरे विकाश हुआ। मतलब यह कि आदि में लोगों को सार्थक पाणी या शब्द बोलना आता ही न