सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/१३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२९
अक्षर-विज्ञान


था। अतएव लेखक को वेद के इन वचनों की भी सङ्गति लगानी चाहिए।

भाषा के सम्बन्ध में लेखक महाशय ने अपने विचारों का सार, पुस्तक के दूसरे प्रकरण के अन्त में, इस प्रकार दिया है―

“वेद-भाषा मनुष्य-कृत नहीं है, क्योंकि मनुष्य कृत वस्तु कृत्रिम होती है। वह नेचुरल अर्थात् स्वाभाविक नहीं होती। किन्तु वेद-भाषा स्वाभाविक अर्थात् सृष्टि-क्रमानुकूल है। अतः वह मनुष्य-कृत नहीं है और न किसी का अपभ्रंश अथवा शाखा है। जो मनुष्य-कृत नहीं वह ईश्वरकृत है, अतः वेद-भाषा आदि-सृष्टि में ईश्वरदत्त वैज्ञानिक मूलभाषा है"।

सम्भव है, आपका यह सब कथन ठीक हो। सम्भव है, वेंदों की भाषा ईश्वर ही की दी या बनाई हुई हो और साथ ही वह वैज्ञानिक भी हो। परन्तु ऊपर के उद्धृतांश में कहे गये आपके न्याय या अनुमान-वाक्य और उनका निगमन सुन कर न्यायशास्त्री ज़रूर विस्मित होंगे। गङ्गा हमारे सामने से बही चली जा रही है। वह मनुष्य-कृत नहीं। अतएव ईश्वर-कृत है। हमारे पड़ोस में सैकड़ों बीघे ऊसर ज़मीन पड़ी है। वह मनुष्य-कृत नहीं। अतएव ईश्वर-कृत है! आपका तर्क और उसका निगमन इसी कोटि का है।

पुस्तक के तीसरे प्रकरण में लेखक महाशय ने लिखा है―“वेद-भाषा स्वाभाविक ( क़ुदरती ) है। उसका एक एक शब्द वैज्ञानिक रीति से बनाया गया है। हरएक शब्द जिन अक्षरों से बना है वे स्वयं विज्ञानमय और प्रत्येक अपना अपना स्वाभाविक ( क़ुदरती ) अर्थ रखनेवाले हैं। इस बात का प्रमाण हमें दो प्रकार से मिलता है। एक तो प्रत्येक अक्षर के अर्थ से, दूसरे उनस० स०-९