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अक्षर-विज्ञान

अस्तु। अब अक्षरों के बीजों के विषय में लेखक महाशय का तर्कवाद सुनिए---

"अ, इस ध्वनि के बोलने के वक्त जिह्वा सम और मुख चारों ओर से एक समान खुला हुया रहता है। मुख-मार्ग से अकाररूपी ध्वनि मूल तालू से लेकर बाहर तक आ ३......करती हुई।" इस आकार की होकर निकलती है। यह चिन्ह अकार शब्द ( वर्ण? ) का निर्धान्त रूप है।"

इसीसे अपनी बीज-माला में लेखक महाशय ने अकार का पूर्वोक्त ही रूप रक्खा है। यहाँ पर प्रश्न यह है कि ध्वनियों के आकार-विशेष का ज्ञान आपको हुआ कैसे? यह आपने जाना कैसे कि अकार के उच्चारण को ध्वनि का रूप वैसा ही होता है जैसा आपने समझा है? किस नियम से अथवा किस यन्त्र की सहायता से आपको उसके आकार या रूप का ज्ञान हुआ? विज्ञान सदा सच्चा होता है। उसके नियम निर्दिष्ट होते हैं। वे जाँचे जा सकते हैं। आपने स्वरों और व्यञ्जनों के ये जो टेढ़े मेढ़े बीज़ बनाये हैं उनकी सत्यता की जाँच कैसे की जाय? आपने संख्यासूचक १ का बीज तो०। बताया, २ का=क्यों? २ का बीज॥ क्यों न माना जाय? इसी तरह और भी समझिए।

इस अक्षर-विज्ञान नामक पुस्तक के तीसरे ही प्रकरण में पुस्तक के प्रधान विषय का वर्णन है। परन्तु इसी विषय के विवेचन का सङ्कोच कर दिया गया है। जो विषय गौण हैं उनके प्रतिपादन में अकारण ही विस्तार किया गया है। लेखक महाशय को प्रधान विषय के विवेचन में कमी न करना था। ख़ैर, कमी की थी तो अपने कथन की पुष्टि में कुछ न्यायसङ्गत युक्तियाँ और प्रमाण तो अवश्य ही दे देने थे। इन बातों के अभाव में आपके अक्षर-विषयक