पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/१६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०
समालोचना-समुच्चय


उन्हें वे बराबर ईश्वर, परमेश्वर और परमात्मा भी कहती आई हैं। अतएव उनके प्रेम के सम्बन्ध में दुर्भावना के लिए मुतलक़ ही जगह नहीं। जिस भगवद्गीता का परम पण्डित भी संसार में सबसे अधिक महत्व की पुस्तक समझते हैं उसी में कृष्णा भगवान् खुद ही कहा है―

मे यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।

अतएव गोपियों ने यदि पतिभाव से उनका भजन किया तो क्या कोई गज़ब की बात होगई? उन्हें वही भाव प्रिय था। कंस और शिशुपाल आदि ने उन्हें और भाव से देखा था। कृष्ण ने उनके उस भाव का भी आदर ही किया और उन्हें वही फल दिया जो अन्य भाव के साधकों को प्राप्त होता है। परमात्मा होकर कृष्ण जब स्वयं ही कह रहे हैं कि जो जिस भाव से मेरा भजन करता है मैं उसे उसी भाव से ग्रहण करता हूँ तब शङ्का और सन्देह के लिए जगह कहाँ?

अच्छा, इन गोपियों के पिता, पुत्र, पति आदि कुटुम्बी कृष्ण को क्या समझते थे? जिस कुमार कृष्णा ने बड़े बड़े दैत्यों को न सही, अपने से अनेक गुने बली और पराक्रमी केशी, बक, अघ आदि प्राणियों को पछाड़ दिया; जिसने कालिय के सदृश महाविषधर विकराल नाग का दर्प-दलन कर दिया; और जिसने गोबर्द्धन पर्वत को हाथ पर उठा लिया उसे यदि वे परमात्मा न समझते थे तो कोई बहुत बड़ा पराक्रमी, प्रभुतावान और महत्वशाली पुरुष जरूर ही समझते थे। तभी उन्होंने अपने कुटुम्ब की स्त्रियों को कृष्ण से प्रेम करते देख उनकी विशेष रोकटोंक नहीं की। यदि करते तो यह कदापि सम्भव न था कि सैकड़ों स्त्रियाँ उस रात को इस तरह अपने अपने