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गोपियों की भगवद्भक्ति


घरों से वन को दौड़ जातीं। शायद ही कुछ स्त्रियाँ उस रात को वहाँ जाने से रह गई होंगी। अच्छा, जो वहाँ गई उनके लौटने पर भी, उनके सम्बन्ध में, कोई घटना या दुर्घटना नहीं हुई। कम से कम पुराणों में इसका उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया कि उन गोपियों को उनके कुटुम्बियों ने घर से निकाल दिया, या उनका त्याग कर दिया, या उन्हें और ही कोई सज़ा दी। इससे सूचित होता है कि गेापियों के कुटुम्बी भी श्रीकृष्ण को कोई अलौकिक पुरुष नहीं तो महात्मा ज़रूर ही समझते थे। अतएव अपनी स्त्रियों को उनसे प्रेम करते देखकर भी या तो उन्होंने उनके उस काम को बुरा नहीं समझा या यदि बुरा भी समझा तो उनके उस आचरण को देखा-अनदेखा कर दिया।

परन्तु यदि आप यही मान लें कि गोपियों का व्यवहार लोकदृष्टि से निन्द्द था तो परतीक-दृष्टि से तो वह प्रशंसनीय ही माना जायगा। भगवद्भक्त अपनी धुन के पक्के होते हैं। उन्हें उनके निश्चित मार्ग से कोई हटा नहीं सकता। उन्हें निन्दा और स्तुति की परवा भी नहीं होती। वे रूढि और लोकाचार के दास नहीं होते। मीरा की क्या कम निन्दा हुई? उन पर क्या लाञ्छन नहीं लगाये गये? उनके कुटुम्बियों ने क्या उनका परित्याग नहीं किया? परन्तु यह सब होने पर भी मीरा ने यह कहना न छोड़ा―

मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरा न कोई।

कुछ कुछ यही दशा तुलसीदास, कबीर, चैतन्य, रैदास, पलटू आदि की भी हुई है। जो "आर्यपथ" कहा जाता है उसे छोड़ने वाले किस साधु पर कलंक नहीं लगा? कलंक लगाने और निष्ठुर आक्षेप करने वाले कुटुम्बियों का त्याग इन साधुओं ने तृणवत्