दरजे की रीडरों में, नहीं हो सकती। इस लिए बाबू गङ्गाप्रसाद वर्मा ने यह प्रस्ताव उपस्थित किया कि इन दरजों में दो तरह की रीढरें पढ़ाई जायँ---अर्थात् उर्दू और हिन्दी की रीडरें जुदा जुदा रहें। इस पक्ष का समर्थन उन्होंने अनेक युक्तियों से किया। उन्होंने कहा कि भाषा के इस एकाकार का फल यह हुआ है कि अपर प्राइमरी पास लड़के न तो उर्दू या हिन्दी का कोई अख़बार ही अच्छी तरह समझ सकते हैं और न कोई किताब ही। तीसरे और चौथे दरजे की रीडरों की भाषा न तो अच्छी हिन्दी ही कही जा सकती है, न उर्दू ही। हिन्दी का शब्द-समूह विशेष कर संस्कृत से लिया जाता है और उर्दू का फारसी और अरबी से। इन दोनों भाषाओं की प्रवृत्ति भिन्न भिन्न दिशाओं की तरफ़ है। ऐसी दशा में हिन्दी और उर्दू को एक ही काँटे पर तोलना और एक ही लट्ठे से नापना सर्वथा अनुचित है। जो लोग इन रीडरों की भाषा को एक करना चाहते हैं उनकी आन्तरिक इच्छा यह जान पड़ती है कि हिन्दी का प्रायः समूल बहिष्कार करके उर्दू का साम्राज्य स्थापित किया जाय। इन प्रान्तों के अधिकांश निवासी हिन्दी, अथवा उससे निकली हुई अन्य प्रांतिक बोलियाँ, बोलते हैं। हिन्दी का ग्रन्थ-साहित्य अनेक ग्रन्थ-रत्नों से भरा हुआ है। उनमें से कितने ही ग्रन्थ सैकड़ों वर्ष के पुराने हैं। अतएव हिन्दी का गला घोंटने का प्रयत्न करना व्यर्थ है। इसी से मध्य प्रदेश और पञ्जाब में भी हिन्दी और उर्दू की रीडरें जुदा जुदा हैं। वर्तमान रीडरें पढ़ कर अपर प्राइमरी स्कूलों से पास हुए लड़के यदि रामायण, प्रेम-सागर और ब्रज-विलास आदि भी न समझ सकें तो ऐसी रीडरों से क्या लाभ? प्रचलित रीडरों की भाषा को हिन्दुस्तानी कह देने से वह हिन्दी नहीं हो सकती। १९१० ईसवीवाली कमिटी का मतलब हिन्दुस्तानी से हिन्दी का नहीं, किन्तु उर्दू का है।
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