ही से जारी है और जिससे प्रायः सभी असन्तुष्ट हैं। गवर्नमेंट ने भी इस निश्चय को मान लिया और यही उसकी वह प्रवेोल्लिखित 'आज्ञा' है। इसी निश्चय के अनुसार जो नई रीडरें इस समय बन रही हैं उनकी भाषा, कमिटी के बतलाये हुए साँचे में, ढाली जा रही है और साथ ही कमिटी के बताये हुए और और परिवर्तन भी हो रहे हैं---अथवा यह कहना चाहिए कि हो चुके हैं। इसी से नैनीताल की कमिटी के उर्दू-प्रेमी मेम्बरों ने यह कह कर इस विषय को टाल देना चाहा कि भाषा की बात तो तै हो चुकी है। अब फिर उस विषय का विचार क्यों किया जाय? डाक्टर सुन्दरलाल ने इस पर कहा कि यह सब तो ठीक है। परन्तु उस कमिटी की सिफ़ारिश के अनुसार रीडरों का ठीक ठीक बनना असम्भव बात है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि एक नहीं अनेक विषयों के पाठ रीडरों में रहें, यथाक्रम नये नये शब्द भी रक्खे जायँ और यथाक्रम भाषा भी कुछ ऊँची होती जाय, तिस पर भी फारसी और देवनागरी लिपि में लिखी गई रीडरों की भाषा एक ही बनी रहे। पण्डित जी ने कहा कि इन रीडरों के बनाने में जो कठिनाइयां हुई हैं उनसे मैं स्वयं परिचित हूँ। उनकी भाषा न हिन्दी ही है, न उर्दू ही। परन्तु उनकी बात न मानी गई। इस पर कमिटी के सभापति जस्टिस पिगट ने बड़ा ज़ोर लगाया। उन्होंने पण्डित जी के पक्ष का समर्थन किया। तब कहीं इस विषय पर कमिटी में विचार हो पाया।
विचार होते होते यह निश्चय हुआ कि पहले और दूसरे दरजे की उर्दू और हिन्दी रीडरों की भाषा एक ही रहे; क्योंकि आरम्भ की पहली दो पुस्तकों में भाषा-भेद न होने से भी काम चल सकता है। परन्तु यह बात आगे, अर्थात् तीसरे और चौथे