अकबर के राजत्वकाल में हिन्दी
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यह ८८ पृष्ठ का एक निबन्ध है। पण्डित सूर्यनारायण दीक्षित, बी० ए०, ने इसे लिखा है। उन्होंने इसे हमारे पास समालोचना के लिए भेजा है। आपने हमें प्राज्ञा दी है कि हम इस पुस्तक पर अपनी सच्ची राय दें। प्रणयानुरोध से हमें ऐसा ही करना पड़ेगा। दीक्षित जी हम पर बड़ी कृपा करते हैं। अतएव मानव-स्वभाव के वशीभूत होकर, सम्भव था, कि हम उनकी पुस्तक को स्नेहसिञ्चित दृष्टि से देखते, क्योंकि ----
"वसन्ति हि प्रेम्णि गुणा, न वस्तुनि"
स्नेही को स्नेही की बुरी से भी बुरी चीज़ में भी गुण ही गुण देख पड़ते हैं। अथवा यों कहिए कि प्रेम ही में गुणों का वास रहता है। परन्तु दीक्षित जी "अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः" इस युक्ति के श्रोतृसम्बन्धी उदाहरण स्वयं ही बनना चाहते हैं। आपका यह उदार-भाव अन्यान्य ग्रंथकर्ताओं के अनुसरण करने योग्य है। हिन्दी के लिए यह सौभाग्य की बात है कि उसके प्रेमियों में ऐसे भी उच्चाशय सज्जन हैं जो प्रशंसा के भूखे नहीं, किन्तु अपने गुण-दोषों की सच्ची समालोचना के भूखे हैं। वर्द्धस्व दीक्षितोत्तंस!
अकबर ने ५० वर्ष राज्य किया। इस अर्ध-शताब्दी में हिन्दी के कौन कौन कवि हुए, कौन कौन पुस्तकें बनीं, कौन कौन विषयों में परिवर्तन हुआ, किस किस विषय के ग्रंथ लिखे गये, हिन्दी की उन्नति हुई या अवनति--–इन, तथा और भी कितनी ही बातों का विचार इस पुस्तक में किया गया है। इन सब के विचार करने के