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पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/१८३

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आयुर्वेद-महत्व

अायुर्वेद-महत्व

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प्राज्ञों का कहना है कि संसार में न तो कोई वस्तु सर्वथा निर्दोष ही है और न कोई सर्वथा सदोष ही। विष ही कभी कभी अमृत का काम देता है और अमृत ही कभी कभी विष का। जो पदार्थ दोषों ही से परिपूर्ण मालूम होते हैं, ढूँढ़ने पर उनमें भी गुण पाये जा सकते हैं। मनुष्य की बुद्धि की पहुँच ही कितनी जो वह समस्त पदार्थों के समस्त गुण-दोषों का पता लगा सके। वस्तुजात के विषय में जब मनुष्य की बुद्धि इतनी पङ्गु है तब सभी शास्त्रों का जानना तो उसके लिए त्रिकाल में भी सम्भव नहीं। एक ही शास्त्र का चूड़ान्त ज्ञान प्राप्त करना एक जन्म में सम्भव नहीं। तब अनेक शास्त्रों में पारदर्शी होने की कथा का तो उत्थान ही नहीं हो सकता।

परन्तु अहङ्कार एक ऐसा दुर्गुण है जो मनुष्य की विवेक-शक्ति पर परदा डाल देता है। इस दुर्गुण के शिकार बड़े बड़े ज्ञानी, विज्ञानी और पण्डित तक हो जाते हैं। यही कारण है जो किसी एक शास्त्र में परिमित भी गति रखनेवाला मनुष्य यदा कदा और शास्त्रों के ज्ञाताओं की अवहेलना करने लगता है। महामोह की महिमा से वह अपने को सर्वशास्त्र-दर्शी बनने का दावा कर बैठता है। एलोपैथी अर्थात् डाक्टरी रोग-चिकित्सा-शास्त्र में जहाँ बहत से गुण हैं तहाँ कुछ दोष भी हैं। इसी तरह आयुर्वेदिक चिकित्सा अनेक-गुण-सम्पन्न होने पर भी दोषों से खाली नहीं। परन्तु कुसंस्कार और अहङ्कार महाराज की कृपा से इधर तो कोई कोई वैद्य डाक्टरी चिकित्सा पर अनुचित आक्षेप करते हैं, उधर डाक्टर साहब भी वैद्यों ही को नहीं वैद्यराजों को भी फूटी, आँख

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