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समालोचना-समुच्चय

मुझे केवल दुग्ध पर रक्खा। फिर, धीरे धीरे, फल और तरकारी पर लाये। तदनन्तर अन्न दिया। इस पथ्य ने जादू का जैसा काम किया। इससे मेरा वह रोग ही नहीं जाता रहा, ३५ वर्षे का पुराना कब्ज़ भी बहुत कुछ दूर हो गया।

क्या ये उदाहरण इस बात के प्रमाण नहीं कि आयुर्वेद-विषयक चिकित्सा चाहे वैज्ञानिक हो चाहे अवैज्ञानिक, रोग निवारण की शक्ति उसमें जरूर है? हाँ, वैद्य अनुभवी, शास्त्रज्ञ, निस्पृह और दयालु होना चाहिए। फिर एक प्रकार से यह चिकित्सा अवैज्ञानिक है भी नहीं। जो वैद्य साक्षर हैं और इस चिकित्सा के "आकर" ग्रन्थों के सिद्धान्तों को समझ चुके हैं वे जानते हैं कि इसके सिद्धान्त द्वदभित्तियों पर निश्चित किये गये हैं। उन सिद्धान्तों का प्रतिपादन करनेवालों में कितने ही त्रिकालज्ञ ऋषि भी थे। कीटाणु-सिद्धान्त और पिचकारी द्वारा शरीर में ओषधि प्रवेश करने की योजना आदि यद्यपि वैद्यक-ग्रन्थों में, विकसित रूप में, नहीं तथापि इस इतनी कमी के कारण यह चिकित्सा-पद्धति हेय नहीं कही जा सकती। इसी की बदौलत करोड़ों भारत-वासियों के रोगों का निवारण अब तक हुआ है और अब भी हो रहा है। यदि इसे वैसी ही राजकीय सहायता मिलती जैसी कि एलोपैथी को मिल रही है तो यह चिकित्सा भी उन अनेक नवीन तत्वों, सिद्धान्तों और यन्त्रों आदि से परिपूर्ण हो जाती जिनका गर्व हमारे डाक्टर लोग बड़े ही आस्फालन के साथ, कौंसिलों आदि में, किया करते हैं। आयुर्वेद-विद्या की दशा यद्यपि, इस समय, कितनी ही बातों में हीन है, तथापि यह चिकित्सा जिस स्थिति में है वह स्थिति भी ग़नीमत है। उस पर प्रहार पर प्रहार होते आये हैं---उसे स्थानभ्रष्ट करने के लिए और भी कई चिकित्सा-पद्धतियाँ खम ठोंक कर मैदान में आ डटी