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आयुर्वेद-महत्व

हैं----फिर भी वह जो जीती जागती बच रही है, यह किसी की कृपा या उदारता का फल नहीं। उसमें कुछ गुण ही ऐसे हैं जिनका तिरोभाव या अत्यन्ताभाव विद्वेषियों की निन्दा और कुत्सा से अब तक नहीं हो सका और न आगे कभी हो सकने की सम्भावना ही है। यदि उसमें गुणों का अतिरेक न होता तो वह कभी की मर गई होती। उसे मार डालने के लिए कोई उपाय अज्ञों, ईष्र्यालुओं ने नहीं छोड़े। यद्यपि इन निन्दकों की संख्या कम नहीं, तथापि कुछ विशद-बुद्धि और ख्यातनामा विदेशी डाक्टर, जिनमें अंगरेज-डाक्टर भी शामिल हैं, ऐसे भी हैं जो आयुर्वेदिक शिक्षापद्धति के गुणों के क़ायल हैं। इस दशा में जब हम अपने ही देश के जल, वायु और अन्न से पले हुए एलोपैथ डाक्टरों को अपने ही घर को चिकित्सा की निन्दा करते देखते या सुनते हैं तब अत्यन्त आश्चर्य होता है और दुःख तथा सन्ताप से हृदय जल उठता है। आयुर्वेद-विद्या में बिल्कुल ही कोरा होकर अथवा उसके दो एक ग्रन्थों के पन्ने इधर उधर उलट कर ही जो अपने को उस का ज्ञाता समझ बैठता है उस ज्ञानलव-दुर्विदग्ध की बुद्धि को बेचारा ब्रह्मा भी ठिकाने नहीं ला सकता। ऐसे लोग यदि अपनी एलोपैथी के गीत गावें और तत्सम्बन्धी ज्ञानमद से मत्त होकर अनाप-शनाप जल्पना करें तो उनके उस आलाप या प्रलाप का इलाज ही क्या है। समय पलटने पर यदि कभी उनका उन्माद दूर हो जायगा तो उनका प्रलाप भी आप ही आप बन्द हो जायगा।

१४ दिसम्बर १९२२ को इन प्रान्तों के क़ानूनी कौंसिल में ठाकुर मानकसिंह ने एक मसला पेश किया। आपने गवर्नमेंट को सलाह दी कि उसे वैद्यक और यूनानी चिकित्साओं को दाद देनी चाहिए, उनके औषधालय खोलने चाहिए, उनकी शिक्षा के लिए स्कूल और कालेज खोलने चाहिए आदि। एक युक्तिपूर्ण