अपने कथन की पुष्टि में पुस्तक-प्रणेता ने अन्य शास्त्रों और ग्रन्थों के सिवा वेदों से भी अनेक प्रमाण उद्धृत किये हैं। परन्तु उन्होंने पुरानी पाथियों ही के भरोसे, अर्थात् उन्हीं के बल पर, इतना कठोर सिंहनाद नहीं किया। उन्होंने तर्क से भी काम लिया है और बहुत अधिक काम लिया है। उनकी दलीलें बहुधा बड़ी ज़बरदस्त हैं। हाँ, कहीं कहीं, वे कमज़ोर जरूर हो गई हैं। परन्तु विपक्षी को अपदस्थ करने के लिए बड़े बड़े तार्किक तक सबल और निर्बल सभी तरह के कोटि-क्रम का प्रयोग करते देखे गये और देखे जाते हैं।
शास्त्री जी ने पहले प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द इन तीनों प्रकार के प्रमाणों का निरूपण किया है और आप्त वाक्यों, अर्थात् शब्द-प्रमाण, पर विशेष जोर दिया है। वेदों को आप ईश्वरप्रोक्त समझते हैं और आयुर्वेद उसी वेद---अथर्व किंवा ऋग्वेद---का उपवेद है। अतएव आपकी राय में ऐसे आयुर्वेद की महत्ता का क्या कहना है। विज्ञान का यह हाल है कि उसकी जा थियरी ( सिद्धान्त ) आज निभ्रान्त मानी जाती है वही कुछ ही समयोपरान्त भ्रान्त सिद्ध हो जाती है। यह बात मेजर डाक्टर रञ्जीतसिंह ने खुद ही क़बूल की है। पर चरक और सुश्रत आदि ग्रन्थों के निर्माता त्रिकालदर्शी ऋषि थे। वे पहुँचे हुए योगी थे। विज्ञान की बातें भले ही भ्रान्तसिद्ध हो जाँय, पर सर्वदर्शी ऋषियों के वाक्य कैसे अन्यथा सिद्ध हो सकते हैं। जब ऋषियों के वाक्यों का यह हाल है तब आयुर्वेद के जो सिद्धान्त ठेठ वेदों में भी विद्यमान हैं उन्हें काटने की शक्ति मनुष्य में तो हो ही नहीं सकती, क्योंकि वेद तो प्रत्यक्ष परमात्मा का निश्वास हैं। पुस्तककार का यह कोटि-क्रम साक्षर जनों की आस्था और अनास्था पर विशेष अवलम्बित रहेगा। जो वेदों को ईश्वरोक्त और आयुर्वेद-विषयक