पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/१९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८४
समालोचना-समुच्चय

में मिली। उलट पलट कर देखा तो यह एक प्रकार की खण्डनात्मक समालोचना मालूम हुई। इसमें तिक्त, मधुर, कटु, कसैले आदि कई रसों की पुट देख कर पढ़ने को जी चाहा। पर निर्बलता के कारण साद्यन्त पढ़ने में दो महीने लग गये। आयुर्वेद-विद्या के प्रेमियों के जानने योग्य मुझे इसमें बहुत सामग्री मिली। अतएव उनकी अवगति के लिए, असमर्थ होने पर भी, इस पर कुछ लिखना मैंने आवश्यक समझा।

पुस्तकारम्भ में शास्त्री जी ने एक श्लोक बड़े मार्के का दिया है। वट का विशाल वृक्ष जिस तरह उसके छोटे से बीज में छिपा रहता है उसी तरह इस पुस्तक के लिखे जाने का कारण और उद्देश इस श्लोक के भावार्थ में अन्तर्हित है। श्लोक यह है---

पाञ्चालीं चलितां चतुर्थपतितां सद्वेद-विद्यामिव

रे रे कीचक नीचवंशदहनीं मास्मावमंथाश्चिरम्।

अन्र्तध्विन्तमनन्तवैरिदमनोन्मीलल्ललामात्

भ्राम्यद्भीमगदो मदोपशमनो जागर्ति पार्थो बलो॥

इसका संक्षिप्त भाव यह है कि---रे नीच कीचक! इस पाञ्चाली को मत छेड़ना---इसकी अवमानना भूल कर भी न करना। देख, उन्मत्तों का उन्माद उतारनेवाला यह महाबली पार्थ, अपनी पाँच मन की गरुई गदा को चक्कर देता हुआ, पैतड़ा बदल रहा है। अथवा अपनी गदा को घुमाता हुआ जिसका भाई भीम भी यहीं विद्यमान है वह पार्थ सोता नहीं, जाग रहा है।

इस पुस्तक में जो कुछ है और जिस ढंग से वह प्रकट किया गया है उसका बीजरूपी प्रतिबिम्ब इस श्लोकरूपी मुकुर में स्पष्ट देखने को मिलता है। इस में उल्लिखित पार्थ की हुङ्कार इस पुस्तक में जगह जगह सुनने को मिलती है।