आदि चिकित्साओं की भी ख़बर आपने ली है। पर सब से अधिक कोप आपने एलोपैथी ही पर प्रकट किया है। यह कोप-प्रकाशन आपने ऐसी व्यंग्यपूर्ण भाषा में किया है कि बिहारी की सतसई पर लिखी गई पण्डित ज्वालाप्रसाद की टीका की समालोचना भी उसके सामने फीकी मालूम होती है। पुस्तक भर में जहाँ कहीं आपने उस पर कुछ लिखा है वहाँ प्रायः वैसी ही भाषा में लिखा है। परन्तु यह बात नहीं कि आपने उसके दोष ही दोष दिखाये हों, और सर्वत्र उसकी नाजायज़ दिल्लगी ही उड़ाई हो। पृष्ठ ३९ और ४० में आपने उसकी शल्य-चिकित्सा ( सर्जरी ) की प्रशंसा भी की है। उसकी मल-मूत्र-परीक्षा, रुधिर--परीक्षा और कीटाणु-वीक्षण आदि की पद्धति को भी आप आवश्यक समझते हैं। आप की राय है कि इन बातों या शाखाओं का ज्ञान प्राप्त करना प्रत्येक चिकित्सक का कर्तव्य होना चाहिए।
आयुर्वेद-महत्व के लेखक बेचारी कुनैन पर तो खङ्गहस्त ही हो गये हैं। आपने उसके दोषों का निदर्शन बहुत ही लम्बा-चौड़ा किया है। डाक्टरों के थर्मामीटर को भी आप सदोष समझते हैं। जिस मनुष्य के शरीर का स्वाभाविक तापमान केवल ९७ दर्जे का है उसमें यदि ९८ दर्जे की गर्मी हो जाय तो थर्मामीटर जी कहेंगे कि बुख़ार नहीं। पर शास्त्री जी बता देंगे कि बुख़ार है। अतएव बुख़ार नापने में थर्मामीटर जी "फेल" और शास्त्री जी "पास"! आपकी तर्क-पद्धति कहीं कहीं पर बड़ी ही चमत्कारिणी हो गई है। उसे देख कर मन में अपूर्व आनन्द का उद्रेक हो उठता है। और मनोरञ्जन कितना होता है, इसके उल्लेख की तो ज़रूरत ही नहीं। क्योंकि उसकी नाप-तोल का कोई प्राला अर्थात् यन्त्र मेरे पास नहीं।