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समालोचना-समुच्चय

यह बात नहीं कि शास्त्री जी ने डाक्टरों और डाक्टरो ही पर चाबुक फटकारा हो; पुराने ढङ्ग के वैद्यों को भी आपने अपने वाग्बाणों का निशाना बनाया है। लिखा है---

"अनेक वैद्य लोग आज भी बाबा आदम के ज़माने की बातों को रेतने के सिवा एक इञ्च भी आगे नहीं बढ़ते। कुम्हार के चाक की तरह चाहे जितने जोर से दौड़ें, पर रहते वहाँ के वहीं हैं। ++ वृक्ष और वनस्पतियों की शक्ति में भेद पड़ गया है, परन्तु वैधों का दिमाग़ आज भी हज़ारों वर्ष की पुरानी बातों में ही चक्कर काट रहा है"।

शास्त्री जी ने आयुर्वेद के सार्वभौम सिद्धान्तों की ख़ूब विशद विवेचना करके उसके महत्व को पाठकों के गले उतार देने की यथेष्ट चेष्टा की है। साथ ही एलोपैथी में जो दोष हैं उन्हें, जहाँ तक उन से हो सका है, ख़ूब स्पष्ट कर के दिखाने में ज़रा भी कोर-कसर नहीं होने दी। आयुर्वेद को अवैज्ञानिक सिद्ध करने के लिए डाक्टरी के पक्षपाती लोग जिन दलीलों से काम लेते हैं उन सब का खण्डन करने में आपने कोई बात उठा नहीं रक्खी। साथ ही कोई दो दर्ज़न कारण बताकर आपने एलोपैथी को कायचिकित्सा के अयोग्य ठहराया है। मेजर डाक्टर रञ्जीतसिंह की कौंसिलवाली वक्तता का प्रधान अंश उद्धृत करके उनकी भी आपने खूब ही ख़बर ली है।

डाक्टरों को कीटाणुवाद ( Germ-Theory ) पर बड़ा नाज़ है। विज्ञान-सम्मत चिकित्सा में इन पक्षपाती डाक्टरों को अप्रतिभ या अपदस्थ करने के लिए शास्त्री जी ने वेदों से अनेक मन्त्र देकर यह दिखाया है कि ये सिद्धान्त तुम्हारे यहाँ अभी कल से ज्ञात हुए हैं; हमारे यहाँ तो ईश्वरोक्त वचनों ही में निबद्ध पाये जाते