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हिन्दी-नवरत्न

शास्त्र और नायिका-भेद के परिज्ञान से मनुष्य-जाति का बहुत ही कम उपकार हो सकता है। इन विषयों पर दो एक छोटी मोटी पुस्तकें लिखनेवाले मतिराम जैसे कवि भी यदि रत्न-श्रेणी में परिगणित हो सकेंगे तो यही कहना पड़ेगा कि 'रत्न' शब्द अपने ठीक अर्थ में नहीं व्यवहृत हुआ। कहीं उससे हीरे का अर्थ लिया गया, कहीं केवल कांच का। मतिराम, देव और भूषण चाहे जितने अच्छे कवि रहे हों, पर क्या उनके ग्रन्थ उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कि सूर और तुलसी के? फिर, वे सूर और तुलसी की श्रेणी की सीमा के भीतर किस तरह पा सकते हैं? सूर और तुलसी के ग्रन्थों में कुछ विशेषता अवश्य है, जिसके कारण उनका इतना अधिक प्रचार और इतना अधिक आदर है। और, देव तथा मतिराम आदि के ग्रन्थों में तदपेक्षा कुछ हीनता अवश्य है, जिससे उनका इतना प्रचार और आदर नहीं। अतएव ये सब एक ही श्रेणी के कवि नहीं। सूर और तुलसी में अवश्य समता है। मतिराम, भूषण, देव, केशव और विहारी में समता है, पर विशेष नहीं। चन्द अपने ढँग के एक ही हैं। और बाबू हरिश्चन्द्र तो सब से निराले हैं। लेखकों ने अपने नवरत्न-कवियों के जो तीन त्रयी-भेद किये हैं वे स्वयं ही इस बात के प्रमाण हैं कि ये सब एक कक्षा के कवि नहीं। आरम्भ में लेखकों ने हिन्दी-नवरत्न का जो अर्थ लिखा है---"साहित्य के नव सर्वोत्तम कवि"---उसके भी 'नव' और 'सर्व' शब्द परस्पर विरोधी हैं।

तुलसीदास

जितने शब्द हैं, चाहे वे जिस भाषा के हों, सब के अर्थों की सीमा निर्दिष्ट है। प्रत्येक शब्द ने अर्थ विशेष पर अपना अधिकार सा कर लिया है। उस से उतना ही अर्थ निकलता है; न कम न