भी किया जा सकता है। ज्ञान का आभास जितना ही धुँधला होगा शब्दचित्र भी उसका उतना ही धुँधला और अस्पष्ट होगा। ठप्पा जितना ही अच्छा होता है, नक़्श भी उसका उतना ही अच्छा होता है। जब दस पाँच वस्तुओं को पारस्परिक तुलना करने--प्रत्येक के गुण-दोष की जाँच करके गुणानुसार, उनकी पारस्परिक उच्चता या अनुच्चता निश्चित करने---की आवश्यकता होती है तब तो उन वस्तुओं के सव्वांश का और भी अधिक स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करना पड़ता है। ऐसा ज्ञान न प्राप्त करने से उसका प्रकटीकरण कभी स्पष्ट नहीं होता। यह भी उत्तम, वह भी उत्तम और सभी उत्तम---ऐसी ही दशा में क़लम से निकलता है।
लेखकों ने इस पुस्तक में 'उत्तम' शब्द का बेहद व्यय किया है---व्यय क्या अप-व्यय कहना चाहिए। किसी किसी पृष्ठ पर तो वह तीन तीन चार चार दफे आगया है। उदाहरण के लिए भूमिका ही के उनतीसवें पृष्ठ पर उसका प्रयोग पाँच दफे हुआ है। उत्तम, उत्तमतर, परमोत्तम, सर्वोत्तम, उत्तमोत्तम, अतिउत्तम इत्यादि अनेक रूपों में वह इस पुस्तक में प्रयुक्त हुआ है। इस कारण इस शब्द की अथ-मर्यादा अनेक स्थलों में नष्ट हो गई है। लेखकों की राय में---'नेवाज, हरिकेश और लाल परमोत्तम कवि थे। आलम, शेख, गज्जन आदि भी 'परमोत्तम कवि थे'। दत्त, सदल, बेनी आदि भी 'बहुत उत्तम कवि' थे । तिस पर भी---भाषा बहुत ही उत्तम' लिखने और 'उत्तम कवित्त और सवैया बनाने' के कारण मतिराम को लेखकों ने महाकवि बनाकर उन्हें नवरत्न की पदवी दे दी और नेवाज आदि के 'परमोत्तम कवि' होने पर भी उन्हें नवरत्न में रखने लायक़ न समझा। अतएव लेखकों के 'परम' 'उत्तम' और 'उत्तमोत्तम' आदि शब्द अनेक स्थलों में अपने प्राकृतिक अर्थ के बोधक नहीं। उनका प्रयोग-बाहुल्य