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समालोचना-समुच्चय


सच है। महृदयों को रुलाने वालो-उनके हृदयों को आर्द करने वाली-जगद्धर की कविता के कुछ नमूने इस लेख में दिये जाते हैं।

स्तुति कुसुमाञ्जलि के दसवें स्तोत्र का नाम है―करुणाक्रन्दन! उसमें ९१ पद्य हैं। उसमें उसके नामानुसार कवि ने बड़ा ही करुणाजनक क्रन्दन किया है। स्तुति, प्रशंसा, उपालम्भ-सभी कुछ करके उसने शिव जी के हृदय में करुणा उत्पन्न करने की चेष्टा की है। उसके आगे वाले ग्यारहवेंं स्तोत्र का नाम उसने रक्खा है―दीनाक्रन्दन। उसकी पद्य-संख्या १४१ है। उसमें भी साद्यन्त रोना ही रोना है। कुछ पद्य तो उसके इतने कारुणिक हैं कि कठोर-हृदयों को भी हिलाने की शक्ति रखते हैं।

करुणाक्रन्दनस्त्रोत्र जब समाप्ति को पहुँचने पर हुआ तब जगद्धर-भट्ट कहते हैं।

अज्ञानान्धमबान्धव कवलितं रक्षोभिरक्षाभिधैः
क्षिप्तं मोहमहान्धकुपकुहरे दुर्हृद्भिराभ्यन्तरै:।
क्रन्दन्तं शरणागतं गतधृति सर्वापदामास्पदं
मा मा मुञ्च महेश पेशलढूशा सत्रासमाश्वासय॥

इसका भावार्थ समझ में आवे चाहे न आवे, इसकी शब्द- स्थापना, इसका शब्द-सौष्ठव, इसके सानुप्रास-पदों से ही बहुत कुछ आनन्द की प्राप्ति हो जाती है और बार बार पढ़ने को जी चाहता है। बड़ी ही कोमल रचना-बड़ी ही कोमल-कान्त-पदावली है। इसका अर्थ―

मैं अज्ञान से अंधा हो रहा हूँ; मेरी सदसद्विचार-शक्ति जाती रही है। बन्धु-बान्धवों से मैं रहित हूँ; मेरा कोई सहायक नहीं; मुझे आश्वासन देने वाला कोई नहीं। इन्द्रिय-नामधारी राक्षस