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जगद्धर-भट्ट का दीनाक्रन्दन


मुझे खाये जाते हैं। शरीरान्तर्गत काम-क्रोधादि शत्रुओं ने मुझे मोहरूपी महा अन्धे कुवे के भीतरी गढ़े में ढकेल दिया है। इसी से मैं वहाँ पड़ा हुआ रो रहा हूँ। मेरा धीरज छूट गया है। जन्म-जरा-मरण-रूपिणी सारी आपदाओं ने मुझे घेर रक्खा है। मैं बेहद विकल हूँ; बहुत घबरा गया हूँ। अतएव आपकी शरण आया हूँ। मुझे और कहीं ठिकाना नहीं। जैसे बने, मेरी रक्षा कीजिए। मुझे छोड़िए नहीं। मुझ भयार्त और त्रस्त पापी की ओर अपनी कोमल और करुणापूर्ण दृष्टि से देखकर मुझे कुछ तो दिलास दीजिए।

मगर उधर से जब कुछ भी दिलासा-उलासा न मिला तब आप फरमाते हैं―

यद्विश्वोद्धरणक्षमाप्यशरणत्राणैकशीलापि ते
मामार्त्त दृगुपेक्षते स महिमा दुष्टस्य मे कर्म्मण:।
देव्यां दिव्यतमैः पयोधरभृतैः पृथ्वीं पृणत्यां कण
द्वित्राश्चेन मुखे पतन्ति शिखिनः किं वाच्यमेतद्दिवः।

आपकी दृष्टि कुछ ऐसी वैसी नहीं। वह मेरा ही नहीं, सारे विश्व तक का उद्धार कर सकती है। उसने तो अशरणों को शरण देने―जिनका कहीं ठिकाना नहीं उनकी भी रक्षा करने―का बीड़ा ही उठा रक्खा है। ऐसा होने पर भी वह जो मेरी उपेक्षा कर रही है, सो यह उसकी कृपणता नहीं। इसमें उसका कोई दोष नहीं। यह सारा दोष मेरे ही कुकर्मों का है। जो आकाश मेघों के द्वारा अमृतवत् जलराशि, की वृष्टि करके सारी पृथ्वी को आप्लावित कर देता है उसकी उस वृष्टि के दो चार बूँद भी यदि मयूर के मुख में न पड़ें तो इसमें उसका क्या दोष? दोष उस अभागे मयूर ही का समझना चाहिए।

स० स०-२