उनकी समझ में ये ये स्थल अशुद्ध हैं। नवरत्न के लेखकों को विद्वानों की सम्मत्यनुसार एक ही अशुद्धि मिली; और उसका भी उन्होंने उल्लेख न किया। प्रश्न यहाँ पर यह है कि क्या संस्कृत के अच्छे ज्ञाताओं से भी यदा कदा व्याकरणसम्बन्धिनी भूलें नहीं हो जातीं?
तुलसीदास ने रामचरितमानस में, जैसा कि उन्होंने बाल-काण्ड के आरम्भ में कह भी दिया है, संस्कृत के अनेक ग्रन्थों के भावों का सन्निवेश किया है। यह बात उनके अच्छे संस्कृतज्ञ होने का प्रमाण है। कहीं कहीं पर इन भावों को उन्होंने ऐसी ख़ूबी से घटा बढ़ा कर रक्खा है कि उनकी सुन्दरता मूल से भी विशेष बढ़ गई है। खेद है, इस पुस्तक के लेखकों ने भावों के ऐसे बिम्ब-प्रतिबिम्ब वाले दो चार स्थलों के भी उदाहरण नहीं दिये। संस्कृत, अँगरेज़ी, उर्दू और फारसी के साहित्य का मन्थन करके भी क्यों उन्होंने ऐसा नहीं किया, कुछ समझ में नहीं आता। जिन भाषाओं के जानने की सूचना उन्होंने इस पुस्तक में दी है उनमें संस्कृत भी है। तो क्या संस्कृत के किसी ग्रन्थ में उन्हें कोई भाव ऐसा नहीं मिला जिसका गुम्फन गुसाई जी ने रामचरितमानस में किया हो? यदि ऐसा हुआ हो तो हम यही कहेंगे कि उन्होंने उन ग्रन्थों को अच्छी तरह देखा ही नहीं। बिना देखे ही उन्होंने लिख दिया कि रामायण संसार के साहित्य का मुकुट है। उनकी इस पुस्तक का तुलसीदास-विषयक निबन्ध पढ़ते समय हम जैसे अल्पज्ञ को भी संस्कृत की ऐसी अनेक सूक्तियाँ स्मरण हो आई जिनका भावार्थ गोसाई जी की उस कविता में, किसी न किसी रूप में, वर्तमान है जिसे लेखकों ने उद्धत किया है, या जिसका उन्होंने हवाला दिया है। उदाहरण के लिए पुस्तक का १३६ वाँ पृष्ठ देखिए। वहाँ लिखा है--