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समालोचना-समुच्चय

में कही गई उपमा का रूपान्तर मात्र है। रघुवंश का हिन्दी- अनुवाद करते समय इस श्लोक पर शायद आपकी नज़र गई भी हो।

मतिराम और विहारी ने संस्कृत के अनेक सुश्लोकों का भाव अपनी अपनी कविता में रख दिया है। विहारी की ऐसी कविता के कई एक उदाहरण सरस्वती में प्रकाशित भी किये जा चुके हैं।

मतिराम के महाकवि या कविरत्न होने की योग्यता या अयोग्यता के विषय में विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं।

देव

इस कवि के रसविलास-नामक ग्रन्थ के विषय में लेखक- महाशयों की सम्मति है---"इस ग्रन्थ से उत्तम ग्रन्थ भाषा-साहित्य में मिलना कठिन है। केवल इतना ही खेद है कि इसका विषय नायका भेद है"। आपको इसका खेद है; हमें इसका खेद है, और बहुत खेद है, कि आप नायिका-भेद को बार बार 'नायका भेद' लिखते हैं। यही नहीं, आप 'नायका' और 'भेद' को अलग अलग भी कर देते हैं, एकत्र नहीं लिखते। सैकड़ों जगह अापने यह अशुद्धि की है। इससे इसे कोई दृष्टिदोष नहीं मान सकता। अच्छा, यह तो आपने कहा ही नहीं कि इस ग्रन्थ में नायिका-भेद होने से इसका महत्व कम हो गया; केवल खेद आपने प्रदर्शित किया। अतएव आपकी यह सम्मति कि इस ग्रन्थ से उत्तमतर ग्रन्थ हिन्दी में मिलना कठिन है' पूर्ववत् रही। तो क्या रामायण और सूरसागर भी इससे बढ़ कर नहीं? और, यदि, इस पुस्तक में नायिका-भेद होने से इसका महत्व कम हो गया तो मतिराम के रसराज का क्यों न हुआ? यदि रसराज महत्वहीन पुस्तक मानी जाय तो अलङ्कार-विषयक ललितललाम और एक पिङ्गल लिखने ही से मतिराम किस प्रकार महाकवि और कविरत्न हो सकेंगे?