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जगद्धर-भट्ट का दीनाक्रन्दन

जब तक मेरी इन्द्रियों की शक्ति क्षीण न हुई थी―जब तक वे अपनी स्वाभाविक अवस्था में थीं―तब तक मेरे गर्व का ठिकाना न था। मैं अपने को बड़ा ही अभिरामाकृति―बड़ा ही रूपवान्-समझता था। उस समय अज्ञानरूपी अन्धकार में पड़ जाने से मैं अन्धा हो रहा था, और, अन्धे को आगे की भी चीज़ नहीं सूझती। इस कारण अपनी आँखों के सामने ही विद्यमान ख़न्दक़ मुझे न दिखाई दिया। फल यह हुआ कि मैं उसमें अकस्मात् गिर गया और अब अत्यन्त कातर हुआ रो रहा हूँ। हाय! अब इस समय में किसे पुकारूँ? किसका आसरा करूँ? किससे प्रार्थना करूँ? कुछ भी मुझे नहीं सूझता। भगवन्, अब आप ही मेरा उद्धार करें तो हो सकता है। कृपा कर कीजिए। मुझ आत्मशत्रु―मुझ आत्मद्रोही―को बचा लीजिए।

जात्यन्धः पथि संकटे प्रतिचरन्हस्तावलम्बं विना
यातश्चेदवटे निपत्य विपदं तत्रापराधोऽस्य कः।
धिग्धिङ्मांं सति शास्त्रचक्षुषि सति प्रज्ञाप्रदीपे सति
स्निग्धे स्वामिनि मार्गदर्शिनि शठः श्वभ्रे पतत्येव यः॥

कल्पना कीजिए कि किसी जन्मान्ध मनुष्य को किसी बड़े ही ज़रूरी काम से एक महाबीहड़ मार्ग से जाना पड़ा। अभाग्यवश उसे हाथ का सहारा देकर कोई उस मार्ग से लिवा ले जाने वाला भी न मिला। बिना मार्ग-दर्शक ही के उसे उस रास्ते जाना पड़ा। चलते चलते राह में उसे एक गहरा गर्त या प्रपात मिला। उसी में गिर कर वह मर गया। इस दशा में उस बेचारे का क्या अपराध? क्या उसे कोई दोष दे संकता है? परन्तु मुझ शठ को तो देखिए। मैं अन्धा नहीं। दो स्वाभाविक आँखों के सिवा तीसरी शास्त्ररूपी आँख भी मुझे प्राप्त है। बुद्धि-विवेकरूपी दीपक भी मेरे हाथ में है। आपके सदृश द्यामय स्वामी मेरे मार्गदर्शी भी मौजूद हैं।