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समालोचना-समुच्चय


फिर भी मैं दौड़ कर गंभीर गर्त में जा गिरा हूँ। अतएव मुझ महामूद को धिक्कार! बार बार धिक्कार!

त्राता यत्र न कश्चिदस्ति विषमे तत्र प्रहर्तुं पथि
द्रोग्धारो यदि जाग्रति प्रतिविधिः कस्तत्र शक्यक्रियः।
यत्र त्वं करुणार्णवस्त्रिभुवनत्राणप्रवीणः प्रभु-
स्तत्रापि प्रहरन्ति चेत्परिभवः कस्यैष गविहः॥

मान लीजिए कि किसी को किसी ऐसे विषम मार्ग से जाना है जहाँ वधिकों, चारों या डाकुओं का बड़ा भय है और रक्षा का कोई उपाय नहीं। इस दशा में यदि पथिक लुट जाय या जान से हाथ धो बैठे तो कोई क्या करे? क्योंकि ऐसी आपदाओं का कुछ भी प्रतिकार नहीं। परन्तु करुणा के महासागर और एक ही का नहीं, तीनों भुवनों का परित्राण करने में परम प्रवीण आप जिस पथ के मालिक और रक्षक हों उसी पथ पर गमन करनेवाला पथिक यदि लूट लिया जाय या जान से मार डाला जाय तो इसमें लाघव किसका? इसमें निन्दा किसकी? उस पथिक को नहीं। इस पराभव का उत्तरदाता वह कदापि नहीं। उत्तरदाता तो रक्षक ही समझा जायगा और यह पराभव भी उसी का समझा जायगा।

किं शक्तेन न यस्य पूर्णकरुणापोयूषसिक्तं मनः
किं वा तेन कृपावता परहितं कर्तुं समर्थो न यः।
शक्तिश्चास्ति कृपा च ते यमभयाद्भीतोपि दीनोजनः
प्राप्तो निःशरणःपुरःपरमतःस्वामी स्वयं ज्ञास्यति॥

जिस पुरुष का मन पूर्ण-करुणारूप पीयूप से आर्द्र नहीं उसका शक्तिमान होना बिलकुल ही बेकार है और कृपालु होकर भी जो परार्थ-साधन न कर सका―जो परहित की सिद्धि करने में समर्थ न हो सका―उसकी वह कृपालुता भी बेकार है। आप में तो