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समालोचना-समुच्चय


है उसने मेरे मन को बहुत ही खिन्न और अबसन्न कर दिया है। मेरा यह दीनाक्रन्दन उसी का परिणाम है। सो आप दया करके मेरे इस रोने-धोने को सुन कर जो कुछ उचित हो कीजिए। इससे अधिक में और क्या कहूँ। आप तो प्राणियों की अन्तरात्मा हैं; सब के मन की बात जानते हैं। अतएव मुझ दास―मुझ प्रणयी―की इस वाचालतारूप ढिठाई को क्षमा कर दीजिए।

भगवन् सदाशिव, जगद्धर-भट्ट की कही हुई इन उक्तियों में से एक उक्ति के कुछ अंश को बाद देकर और सब मेरी तरफ़ से भी कही हुई समझने की कृपा कीजिए। उस एक उक्ति के उस अंश से मेरा मतलब शास्त्ररूपी तीसरे नेत्र से है। जगद्धर के वह तीसरा नेत्र था। पर मैं उससे सर्वथा वञ्चित हूँ। अतएव मैं आपकी कुछ अधिक कृपा का अधिकारी हूँ या नहीं, इसका फैसला आप ही कीजिए।

[ जुलाई १९२६ ]
 

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