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जगद्धर-भट्ट का दीनाक्रन्दन


हूँ। दुःखों से छटपटा रहा हूँ। वही मुझसे जबरदस्ती वाचालता करा रहे हैं―वही मुझे बोलने को मजबूर कर रहे हैं।

धत्ते पौण्ड्रकशर्करापि कटुतां कण्ठे चिरं चर्विता
वैरस्यं वरनायिकापि कुरुते सक्तया भृशं सेविता।
उद्वेगं गगनापगापि जनयत्यन्तर्मुहुर्मज्जनाद्।
विश्रद्धां मधुरापि पुष्यति कथा दीर्घेति विश्रम्यते॥

बहुत दिनों तक बराबर खाते रहने के कारण, अत्यन्त मीठे पौंडे के रस से बनी हुई शर्करा से भी अरुचि हो जाती है। अलौकिक सुन्दरी नायिका का भी अत्यन्त सेवन, कुछ काल के उपरान्त, नीरस हो जाता है; उससे भी तबीयत हट जाती है। भगवती भागीरथी के भी जल में बहुत गोते लगाने―उसमें बार बार स्नान करने से मन में उद्वेग उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता। इसी तरह महामधुर और मनोरञ्जक भी कथा, यदि बहुत बढ़ा कर कही जाय तो, उससे सुनने वाले की श्रद्धा जरूर जाती रहती है। यही समझ कर मैं अपनी इस करुण-कथा को अब समाप्त करना चाहता हूँ।

इत्थं तत्तदनन्तसन्ततलसञ्चिन्तशतव्ययत-
व्यामोहव्यसनावसन्नमनसा दीनं यदाक्रन्दितम्।
तत्कारुण्यनिधे निधेहि हृदये त्वं ह्यन्तरात्माखिलं
वेत्स्यन्तःस्थमतोऽर्हसि प्रणयिनः सन्तु ममातिक्रमम्॥

हे करुणासागर! मुझे एक दो चिन्ताएं नहीं सता रहीं। मैं तो सैकड़ों चिन्ताओं का शिकार हो रहा हूँ। फिर वे चिन्ताएं ऐसी नहीं जो दो चार घड़ियों या दो चार दिनों तक ही मुझे सताती हों। नहीं, उनके आक्रमण तो मुझ पर सतत ही जारी रहते हैं। अतएव उनके कारण मेरे हृदय में जो महामोह की आँधी आ रही