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भारतीय चित्रकला

त्वामालिख्य प्रणयकुपितां धातुरागैःशिलाया-
मात्मानं ते चरणपतितं यावदिच्छामि कर्तुम्।
अस्पैस्तावन्मुहुरुपचितैदृष्टिरालुप्यते मे
क्रूरस्तस्मिन्नपि न सहते सङ्गमं नौ कृतान्तः॥

यक्ष कहता है―तुझ प्रणयकुपित प्रेयसी का चित्र मैं गैरिक (गेरू) से बनाता हूँ। तदनन्तर जब तक मैं अपना भी चित्र वहीं बनाकर, तुझे मनाने के लिए, तेरे पैरों पर अपना सिर रखना चाहता हूँ, तब तक मेरे आँसुओं से मेरी दृष्टि का लोप ही हो जाता है। हाय! चित्र में भी हम दोनों का समागम नहीं होने पाता।

एक साधारण संस्कृतज्ञ से किसी ने पूछा कि, पण्डित जी, इस श्लोक में कालिदास ने गैरिक से चित्र बनाने का उल्लेख क्यों किया? उत्तर में पण्डित जी ने फरमाया कि पहाड़ पर क्या कलम-दावात रक्खी थी, अथवा क्या वहाँ रङ्गों का बक्स और ब्रुश धरा था? गेरू ही वहाँ सुलभ थी। इसी से उसका प्रयोग किया गया। इस पर यह एतराज़ हुआ कि महाराज, पहाड़ों ही से कोयला, खड़िया, कासीस और शिलाजीत भी तो प्राप्त होता है। गेरू में ऐसी कौन सी विशेषता थी जो उसी से चित्र बनाया गया। इसका जवाब पण्डित जी न दे सके। पर दैवयोग से वहीं मिस्टर एन० सी० मेहता के सदृश एक चित्रकलाभिज्ञ रसिक शिरोमणि वैठे हुए थे। उनसे न रहा गया। वे बोल उठे―कुपित मनुष्य, चाहे वह स्त्री हो चाहे पुरुष और चाहे उसके कोप का कारण प्रणय हो, चाहे अपमान, चाहे और कुछ, उसका चेहरा तमतमा उठता है और उस पर अरुणिमा छा जाती है। उसे प्रकट करने के लिए अरुणवर्ण गैरिक ही का प्रयोग उचित था।