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समालोचना-समुच्चय


इससे खड़िया और कोयले से काम न लेकर कालिदास ने गेरू ढूँढने की तकलीफ़ गवारा की। कहने की आवश्यकता नहीं, इस पिछले उत्तरदाता का हृदय सरसता से लबालब भरा था। इसीसे उसने उस खूबी का पता लगा लिया जो शायद कालिदास के भी ध्यान में न आई होगी।

एक और उदाहरण लीजिए। किसी की उक्ति है―

इयं सन्ध्या दूरादहमुपगतो हन्त मलयात्
तवैकान्ते गेहे तरुणि बत नेष्यामि रजनीम्।
समीरेणोक्तवं नवकुसुमिता चूतलतिका
धुनाना मूर्द्धानं नहि नहि नहीत्येव कुरुते॥

वसन्त ऋतु थी। शाम हो गई थी। ऐसे समय में फूले हुए आम की लता से मलयानिल कहता है―मैं बहुत दूर, मलयाचल, से आ रहा हूँ। थक गया हूँ। बेला कुबेला है। हे तरुणी आम्रलते! अपने इस एकान्त घर में मुझे रात भर पड़ा रहने दे। इसके उत्तर में वह लतिका, अपना सिर तीन दफे हिला हिला कर कहती है―नहीं, नहीं, नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकती।

एक अरसिक से इस नकारात्मक निषेध का कारण पूछा गया तो उसने बताया कि कोई भी तरुण स्त्री, अपने एकान्त घर में, रात को, किसी अपरिचित पुरुष को रहने की आज्ञा कदापि नहीं दे सकती। लोकाचार यही है। इससे च्युत होनेवाली कुलकामिनी कलङ्कित समझी जाती है। इसी से आम्रलता ने पवन को अपने घर नहीं ठहरने दिया। यह उत्तर एक काव्य-कला-मर्म्मज्ञ के हृदय में पैते बाण की तरह घुस गया। उसने कहा―आपने अर्थ का अनर्थ कर डाला। आम्रलता का अभिप्राय तो इसका बिलकुल ही उलटा था। उसने तो उस रसिक़ पवन-पथिक को ठहराना